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राजनीति में बेबाकीपन अच्छा होता है खास कर उनके लिए जो कुछ न कर पाने की क्षमता रखते हैं. मर्यादा का उल्लंघन करना राजनीति की आदत रही है पर इस तरह की बातें शायद ही किसी भी भारतीय के लिए अनुकूल हों. एक सभा को संबोधित करते हुए भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी ने स्वामी विवेकानंद की तुलना मफिया डॉन दाउद से की, ऐसा करते हुए उन्होंने कहा कि दोनों का मानसिक स्तर एक समान था. किसी की शान में गुस्ताखी करना भी सियासत का एक आलम है और इसके बाद की चर्चाओं के बीच फंसना भी राजनेताओं के लिए लाभप्रद ही होता है. किसी के बीच प्रसिद्ध होने के दो तरीके होते हैं या तो आप अपने को उस अनुसार बनाइए जिससे आपकी आलोचना अच्छे रूप में की जाए या फिर ऐसा किया जाए कि किसी की जबान थके न प्रतिक्रिया देते हुए और यह दूसरा तरीका राजनेताओं को बहुत पसंद आता है.
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थोड़ा तो लिहाज कर लेते
आप में वह गुण नहीं है तो क्या आप इसकी सजा दूसरे को देंगे. आज की राजनीति में तहजीब तो बची ही नहीं है और आज के मौजूदा राजनेताओं से यह उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए पर एक-दूसरी की पार्टियों के ऊपर आरोप लगाते-लगाते यह उन तक भी पहुंच गए जिनका योगदान देश को एक आदर्श रूप देने में था. जिसने विश्व के सामने यह बात रखी कि मात्र भारत ही एक वह देश है जिसमें सबसे पहले धर्म और शिष्टाचार की बात आई और उनकी तुलना ऐसे व्यक्ति से कर दी गई जो पूरे विश्व को शांति से रहने ही नहीं देता है. यह तो ऐसी बात हो गई जिसमें मात्र अपने लिए सोचा जाए और बाकी दुनिया को उस ताक पर रख दिया जाए जहां से उतरना भी एक कष्टकारी बात हो जाती है. यहां सभा को संबोधित करते हुए लोग यह भूल जाते हैं कि क्या मैं कोई ऐसी बात तो नहीं कर रहा जिससे किसी के मन को ठेस पहुंच रही है.
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सिर्फ वोट के लिए इतना क्यूं गिरना
सिर्फ वोट और सत्ता प्राप्त करने के लिए ऐसी टिप्पणी करना एक अशोभनीय बात है. जिसे युवा अपना आदर्श मानते हैं, जिसे पूरा देश पूर्ण सम्मान की दृष्टि से देखता है उसके बारे में कुछ अप्रासंगिक कहना ही पूरे देश का अपमान करना है. गडकरी निरंतर कुछ दिनों से ऐसे ही विवाद में फंसते नज़र आ रहे हैं फिर भी अपनी आदतों को ना सुधारने की कसम खा रखे हैं. राजनीतिक चिंतन का इतना गिरा हुआ स्तर कभी नहीं देखा गया जो आजकल की राजनीति में देखा जा रहा है.
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