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डूबते हुए को तिनके का सहारा भी काफी होता है. अब तिनके के रूप में आप इस्तेमाल क्या करते हैं यह तो आप पर निर्भर करता है चाहे वह तिनका हो या पूरा का पूरा खंभा. वैसे भी कहने की बातें हैं भाई…तिनका खुद तो अपनी मर्जी से बह नहीं सकता..जाना कहीं और चाहता है, जाता कहीं और है…तो डूबते हुए को क्या सहारा देगा. इसलिए अब यह बात पुरानी हो चली है. नए जमाने की चाल के साथ तो ‘डूबते को मजबूत खंभे (लौह-खंभे) का सहारा चाहिए’. पर खंभा तो खुद ही डूब जाए पानी में, दूसरों को कैसे बचाएगा! अजी कैसी बातें करते हैं हमारे साथ… 21वीं सदी में सबकुछ संभव है.
हां तो बात हो रही थी डूबते का सहारा लेने के. हमारे देश में भूखे-नंगों की कमी नहीं है. निकल जाइए देश के किसी भी कोने में…अगर भिखारियों की टोली हर नुक्कड़ पर न मिल जाए तो मान जाएं. लेकिन बात कुछ ऐसी है कि इन भिखारियों से भी बड़ी मुश्किल में जीने वाले कुछ लोग हैं हमारे देश में. बड़ी तादाद में हैं भाई साहब और उनकी संख्या घटने की बजाय बढ़ रही है…कोई कुछ नहीं कर पा रहा..कोई सरकारी योजना, कोई उपाय इन बेचारों की मुश्किल हल नहीं कर पाती…’हल नहीं कर पाती’ से मतलब है कि यह फौज हर पांच साल में नजर आती है. पूरे चार साल शेखी बघारने के बाद पांचवें साल अचानक अपनी हकीकत पर आ जाते हैं ये. अब पूछिए कि ये फकीर हैं कौन और आते कहां से हैं…जाते कहां हैं.? बताते हैं, बताते हैं…थोड़ा धीरज धरो!
दरअसल ये फकीर किसी और देश के नहीं, हमारी पॉलिटिक्स की गलियों से आते हैं. ये फकीर चार साल सोते हैं. पॉलिटिक्स की गलियों की खासियत यह है कि यहां खाना-पीना मौज-मस्ती सब मुफ्त है. इसमें घुसना बस मुश्किल होता है लेकिन एक बार घुस गए तो फिर और किसी चिंता की जरूरत नहीं. ‘लोकतंत्र नाम की जगह’ पर यह यह विशेष प्रकार की गली कल्पतरु वृक्ष की तरह है..जो मांगो सब मिलता है. लेकिन इसकी बस एक कमी है कि यह किसी को पांच साल तक ही रखती है. पांचवें साल एक खास दिन ‘चुनाव नाम का एक बवंडर’ आता है और उसमें सब इधर-उधर, तितर-बितर हो जाते हैं. इस बवंडर में आंधी-तूफान आएगा या सूखा पड़ेगा या गरज के साथ बारिश की बेतहाशा बौछारें सबको डुबाएंगी यही बस तय नहीं होता. यह बवंडर इतना तेज होता है कि कई बार पक्का, मजबूत मकान बनाकर रहने वाले लोग भी इसमें खिंचते हुए पॉलिटिकल गली से बाहर ही निकल जाते हैं. उसके बाद उनकी वह बुरी हालत होती है कि पूछो ही मत.
लोग कहते हैं अपने मकानों को टिके रहने के लिए यहां अगर कोई भूकंपरोधी मकान भी बना ले तो भी पांचवें साल का भूकंप उसे नहीं तोड़ेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है. इसकी एक बहुत बड़ी खूबी यह है कि यह सबसे ज्यादा उन घरों को नुकसान पहुंचाती है जिसके सारे लोग सबसे ज्यादा समय तक सोए होते हैं. तो आखिरी वक्त में हर घर से लोग चुनावी बवंडर के भय से कांपते हुए डरकर जाग जाते हैं. आखिरी वक्त में लगभग हर कोई जाग ही जाता है लेकिन मुश्किल यह है सब बराबर के सोए होते हैं तो कोई भी तय नहीं कर पाता कि बवंडर किसे गली में रहने देगी, किसे बाहर निकाल देगी. बस फिर जुट जाते हैं लोग एक मजबूत सहारे की तलाश में.
इस तलाश में उन्हें जो भी, जरा सी मजबूत भी कोई चीज मिलती है तो उसे अपने पास लाने के लिए वे जी-जान से जुट जाते हैं. दिक्कत यह होती है कि वहां हर चीज बस एक ही है, एक ही तिनका, एक ही खंभा, वगैरह वगैरह…बस रोड़े बहुत होते हैं कि किसी भी सहारे को अपने घर की सुरक्षा के लिए अपना बना पाना यहां नाकों चने चबाने जैसा होता है. जैसे आजकल एक ‘लौह खंभे’ के पीछे पूरा पॉलिटिकल मुहल्ला बेजार है. हर किसी को यह खंभा चाहिए क्योंकि इस गली वालों का मानना है अब तक जमा चीजों में यह ‘लौह खंभा’ बवंडर की दिशा को बदल सकने की कूवत रखता है…क्योंकि कभी इसी खंभे ने इस मजबूत पॉलिटिकल गली की नींव खड़ी की थी और किसी ने इसे तवज्जो नहीं दी. इसी दुख में जंग खाकर अपनी जगह दूसरों को देकर यह गली की जिम्मेदारी से मुक्त हो गया.
तब तो किसी ने परवाह नहीं की क्योंकि गली में आवाजाही वैसे ही सामान्य हो रही थी जैसे लौह खंभे के समय होती थी. बस बवंडर के समय बचने के लिए तिनकों की तलाश हर बार उनके लिए मुश्किल लेकर आती थी. तो अचानक किसी घरवाले के दिमाग में यह खयाल आया कि जब तक लोहे का खंभा (लौह-खंभा) था बवंडर आता था पर शांति से आता था और सब घरवाले लगभग सुरक्षित ही रह जाते थे. तो उसने निष्कर्ष यह निकाला कि अगर उस जंग खाए खंभे का एक टुकड़ा भी वह अपने घर में चिपका दे तो उसका घर इस बवंडर में सुरक्षित बच सकता है. इसमें दिक्कत बस इतनी थी कि मलबे समेत पूरा का पूरा जंगहाल ‘लौह खंभा’ किसी और घराने के पास था जो इन सारे घरानों में सबसे ज्यादा बार सुरक्षित बचा था.
लोग कहते थे कि उसका घराना ही बहुत मजबूत है इसलिए वह सबसे ज्यादा बार बवंडर से बचा है. लेकिन इस नए आदमी ने यह जान लिया था कि सबसे मजबूत जो चीज उस घराने के पास थी उसमें एक यह ‘लौह खंभा’ था. इसके लिए वह आज जी-जान से जुटा है कि खंभे का एक कतरा भी उसके घराने से चिपक जाए लेकिन वह मजबूत घराना भी इसका एक टुकड़ा तक देने को तैयार नहीं क्योंकि उसे भी पता है ‘लौह-खंभे’ का एक भी टुकड़ा अगर किसी के पास गया टुकड़ा पूरा का पूरा उसी का हो जाएगा और इस घराने से वह गायब ही हो जाएगा….क्योंकि यह टुकड़ा अखंडित रहने के लिए आशीर्वादित था…अखंडित होना ही इसकी सबसे बड़ी विशेषता थी…इसकी सबसे बड़ी मजबूती थी. ऐसे में बवंडर में बचने के अपने सबसे मजबूत तिनकों में से एक इस लौह-खंभे से दूर होकर वह घराना और लोगों की तरह बार-बार बिखर सकता है…अगले बवंडर के लिए शायद वह और कोई इंतजाम कर भी ले लेकिन यह बवंडर अब आने ही वाला है…हवाएं चलनी शुरू भी हो गई हैं…लौह-खंभे को गंवाने का मतलब है इस बवंडर में इस घराने का बचना मुश्किल हो जाएगा. बस फिर दोनों जुगत लगा रहे हैं इस खंभे को अपना बनाने की. खंभा खंडित हो नहीं सकता. देखते हैं किसके हिस्से आती है.
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