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आप ने याद दिलाया तो हमें याद आया कि कभी था हमारे सर पर ‘अन्ना’ का साया..क्या करें जब भी आप का नाम आता है, कोई न कोई गीत हमारे लबों पे अपने आप आ जाता है. वैसे ‘आप’ के अकेलेपन का एहसास है हमें. ‘आप’ को उनकी कितनी कमी खलती है….हमें भली-भांति मालूम है. आप उनके बिना कुछ नहीं, वो ये जब जताने की कोशिश करते हैं आप को कितना दुख होता होगा, हम समझ सकते हैं. आप को लगेगा कि ये हमें कैसे पता? कैसी बात करते हैं आप भी…पब्लिक है, सब जानती है. हम भी आखिर उसी पब्लिक का हिस्सा हैं.
हमारे सुनने में आया कि ‘आप’ का किसी ने मुंह काला कर दिया. भाई, बड़ा दुख हुआ जानकर. मुंह काला कर दिया. पर उससे भी दुख की बात तो यह है कि इतनी मुश्किल से उनकी याद भूलकर जो आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे थे, उन्होंने फिर से उसे ताजा कर दिया है. आप का क्या खयाल है? शायद आप भी सहमत होंगे हमारी बातों से. हां जी..पूरी तरह सहमत हैं लेकिन करें क्या इस कहानी में अपना मुख्य किरदार बनाने की कोशिश कर रहे थे कि वे फिर से टपक पड़े अपना सा मुंह लेकर. न खुद खाते हैं, न हमें खाने देते हैं. भूखे रहने से उन्हें इतना प्यार क्यों है ये तो वही जानें लेकिन ‘आप’ के मुंह का निवाला क्यों छीनते हैं. पहले जब निवाला दे रहे थे तो घमंड कि हमारा खा रहे हो..अब जब ‘आप’ अपनी खा रहे हैं तब भी उन्हें चैन नहीं. आखिर माजरा क्या है?
कहानी बड़ी लंबी नहीं है लेकिन ‘आप’ आखिर किस-किस को समझाएंगे. समझाएंगे तो किस तरह समझाएंगे. सभी तो उनके ही भक्त हैं. घर से भागे हुए कहां शरण मिलती है. तो ‘आप’ को भी महल नहीं मिला.. कोई बात नहीं, ‘आप’ ने उसमें भी संतोष कर लिया. अपनी छोटी सी कुटिया बनाई पर वे तो ‘आप’ की इस छोटी सी कुटिया को भी अपने महल की जगह पर बर्दाश्त नहीं कर सके. समझ सकते हैं जब घास-फूसों की उस कुटिया में घास-फूस की कमजोरी का लाभ लेकर जब उसे हटाकर ‘आप’ की कुटिया का बेड़ा नगण्य मानते हुए जब वे आए होंगे ‘आप’ तक और कालिख लगाई होगी ‘आप’ पर तो कितना दुख हुआ होगा ‘आप’ को! उन्हें क्या पता दुख क्या होता है. वे तो बस अपना ही राग अलाप रहे हैं ‘हमारी जगह से बाहर जा’. भाई आप जाने की ही तो कोशिश कर रहे हैं लेकिन वे जाने ही नहीं दे रहे.
इस छोटी सी कहानी में पिता समान ‘आप’ के अन्ना भाई की ‘आप’ के लिए कठोरता हमारा हृदय पिघला रहा है. कितना चाहते थे ‘आप’…कि लक्ष्मण की तरह पिता समान बड़े भाई अन्ना को ‘आप’ का राज-पाट दें. पर उन्हें तो जाने कहां से वनवास में जाने की धुन समा गई. अब हर युग में जरूरी तो नहीं कि लक्ष्मण बड़े भाई के साथ वनवास ही लें. तो ‘आप’ ने मना कर दिया वनवास लेने से. आखिर क्या गलत किया ‘आप’ ने. एक तो पिता समान अन्ना को खोने का दर्द मिला. उस दुख को फिर भी सहते हुए ‘आप’ ने अपना साम्राज्य बनाने की कोशिश की. अब साम्राज्य में सबसे जरूरी प्रजा ही तो है. प्रजा जुटाने की ही तो कोशिश कर रहे थे. अभी थोड़ी-बहुत प्रजा इकट्ठा कर सके थे. उम्मीद थी कि जब ‘आप’ साम्राज्य बनाने में कामयाब हो जाएंगे तो अन्ना (बड़े भाई) जरूर प्रसन्न हो जाएंगे. लेकिन कितना गलत थे ‘आप’. अन्ना (बड़े भाई) से तो खुद से अलग हमारी कोशिशें रंग लातीं देखी भी नहीं गई. सारे रंगों पर काला रंग डाल दिया. अब इस काले रंग को आज कौन पसंद करता है. इस रंग-बिरंगी दुनिया में आज हर किसी को चटकीले रंग पसंद हैं. इस काले रंग में ‘आप’ रंग भरें भी तो कैसे? अब ‘आप’ के साम्राज्य का क्या होगा! कोई नहीं उम्मीदों पर दुनिया कायम है. क्या पता काले रंग के अंधेरे में डूबता देख अन्ना (बड़े भाई) ‘आप’ के साथ आ जाएं. उम्मीदों पर दुनिया कायम है! सब अन्ना की मरजी है!
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