कहने को तो हम एक लोकतांत्रिक देश में रहते हैं लेकिन क्या वास्तविकता में हम पूर्ण रूप से लोकतांत्रिक हैं या फिर प्रजातंत्र का मुखौटा ओढ़े हुए वहीं राजशाही शासन प्रणाली चल रही है जहांँ राजा को अपने निजी हितों के लिए प्रजा को सूली पर चढ़ाना बेहद आम बात है। शासन प्रणाली का सिर्फ बाहरी ढांचा परिवर्तित हुआ है आन्तरिक रूप से तो राजशाही समानता ही नज़र आती है। राजनीति की स्थिति तो देखिए, धार्मिक नारे मंदिर मस्ज़िदों से ज्यादा संसद भवन में लग रहे हैं। जो सांसद देश हित के लिए चुने गये वही धर्म के नाम पर देश का विभाजन करने में तुले है। पूर्ण दोष शासक प्रणाली का भी नहीं है, मीडिया ,जो सच का आईना होती है, निष्पक्ष होना भूल गयी है और जनता, जिसको आवाज उठानी चाहिए, चेला बनी बैठी हुई है। देश में सुरक्षा स्वास्थ्य का आलम तो यह है कि लोग घटना होने से पहले ही अफ़सोस जताने में लग जाते हैं और घटना के बाद सबकी याददाश्त चली जाती है। क्या सिर्फ अफ़सोस करने से परिस्थितियांँ बदल जायेंगी या इसके लिए आवाज़ उठाये और सरकार को मजबूत फ़ैसला लेने के लिए दबाव बनाये, देश के संविधान को और सुदृढ़ बनाये। किसी के चेले मत बनिये बेशक अच्छे कार्यों की प्रशंसा करें लेकिन एक निष्पक्ष नागरिक की तरह देश के सामाजिक मुद्दों पर आवाज़ उठाइये। देश की राजनीति को राजशाही मत बनने दीजिए।
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