शब्दों की दुनिया
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धरा के कोने कोने में तम
फहराता रहता है परचम
गगन सुप्त है सुप्त दिशाएँ
सुप्त हमारी सब इच्छाएँ
जीवन के सब शब्द हैं रीते
ये रजनी जाने कब बीते
जुगनू लेकर के इकतारा
फिरता जंगल मारा मारा
एक अकेला कहाँ चले
तरुणाई का दीप जले।
बोलों पर पहरे बैठे हैं
चेहरों पर चेहरे बैठे हैं
बंधन- बंधन जीवन- जीवन
लेकर अपना अपना क्रन्दन
स्वप्न खो रहे सब नयनों के
गंतव्य छूटे चरणों के
एकत्रित कर शक्ति अपनी
बंद करो अब माला जपनी
कौन जवानी कब मचले
तरुणाई का दीप जले।
तरुणाई का दीप जले।
– प्रभु दयाल ‘हंस’
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