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मेरा हमसफर

शब्दों की दुनिया
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आज से सात – आठ साल पहले मैं शादी करने का हिमायती नही था। लगता था कि एक बंधन है, जो मुझे मेरी उड़ानों से पहले ही पस्त कर देगा। रात के सपनों को सुबह की नजर लग जाएगी। वैसे भी हमारी परम्परागत शादियाँ एक जुआ ही होती हैं। आप के पक्ष में भी हो सकती है और विपक्ष में भी। आपकी जिन्दगी को बेहतर भी कर सकती हैं और बदतर भी। ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है, बिना आप की राय लिए। उन दिनों एक कविता ‘आजाद पंछी ‘ के माध्यम से भी अपने विचार व्यक्त करने की कोशिश की थी –
‘आजाद पंछी ‘
स्वप्निल आकाश में उड़ता पंछी हूँ मैं
मैं नही चाहता कोई सोने का पिंजरा
पर मेरी मां चाहती हैं कि
मैं सदियों पुरानी परम्पराओं को निभाऊं
नदी की धारा बन कर किनारों तक सीमित हो जाऊं
लहरों की दृढ़ता किनारे जान लेते हैं
आखिर सर झुका कर हार मान लेते हैं
लेकिन मेरे बढ़ते कदमों पर किसी की
पुकार जंजीर बन जाए
मैं नही चाहता कि मेरी ऐसी तकदीर बन जाए
किसी के केश मेरी आँखों पर पड़ जाएँ
छोड़कर नयनों को मेरे स्वप्न उड़ जाएँ
मैं नही चाहता
करोड़ों भूखे नंगे भारतीयों में
दो- चार और शामिल हों
इतना ही बहुत है , जो हैं
वो ही किसी काबिल हों
मैं स्वप्निल आकाश में उड़ता आजाद पंछी हूँ।

खैर, परिस्थितियां हावी हुईं और उस अनचाहे बंधन में बंध गया। 27-11-2005 का दिन वह खास दिन था, जब मैं दूल्हा बन कर एक भारतीय परम्परा का वाहक बना। तब से लेकर आज तक मुझे अपने उस फैसले पर कोई खास निराशा महसूस नही हुई। इसका कारण रहा मेरा साथी , मेरा हमदम , मेरा हमसफर। मैंने जुआ खेला था पर वह मेरे पक्ष में आ गया। मीनाक्षी ने मुझे कभी हतोत्साहित नही होने दिया। नौकरी से पहले भी और नौकरी के बाद भी उसने मेरी भावनाओं की कद्र की। मेरे हर दुःख में, हर सुख में वह परछाईं बन कर मेरे साथ रही। घरों में होने वाले आम झगड़ों से भी मेरा वास्ता नही होने दिया। मेरे सुबह जागने से लेकर सोने तक वह मेरी परछाईं बनी हुई हैं। कई बार मुझे ही लगा कि मैं ज्यादती कर रहा हूँ। मुझे उन्हें ज्यादा समय देना चाहिए। लेकिन मेरा समय मेरा कहाँ है। बहुतों का हिस्सा है उसमें। उनका भी जो मुझे जानते हैं, उनका भी जिन्होंने मेरा नाम तक नही सुना। पर कुछ लोगों के मुंह पर कभी शिकवा नही होता , शायद ये उनकी उदारता / महानता /समझदारी का परिचायक होता है। कहते हैं औरत की प्रशंसा करना उसके खिलाफ साजिश करना है पर मुझे लगता है कि उसकी प्रशंसा न करना अपनी कमजोरियों पर पर्दा डालना है।
आज सात साल बाद भी मुझे लग रहा है कि हम सच्चे साथी हैं , खुशियों के भी और दुखों के भी। एक दूसरे की भावनाओं के सच्चे समर्थक भी, सच्चे आलोचक भी।
विश्वास है कि साठ साल बाद भी इन पंक्तियों में कोई बदलाब करने की नौबत नही आएगी।

– प्रभु दयाल हंस

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