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एक रिपोर्ट -दो सन्दर्भ

शब्दों की दुनिया
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एक रिपोर्ट -दो सन्दर्भ

दिनांक -13-10-12 को मित्र मंडली के साथ तिगाँव कालेज में चल रहा तीन दिवसीय यूथ फेस्टीवल देखने का मौका मिला . यह छात्र -छात्राओं के लिए कुम्भ मेले का सा महत्त्व रखता है .मुख्य रूप से हरियाणवी लोकगीत व हिंदी नाटक देखने का अवसर मिला .हम भी इन्हें ही देखने का विचार बना कर गये थे .
जहाँ तक लोक गीत/नृत्य की बात है तो लोकसंस्कृति को बढ़ावा देने का दावा करते कथित सारे प्रयास धूल चाटते दिखाई दिए. बाजार वाद,पश्चिम के अँधानुकरण ने लोकगीतों की मौलिकता , सरसता की जान ही ले ली है . कुछ नया दिखाई नही देता .अत्यधिक शोर-शराबा .., वही जाने -पहचाने बोल …… हरियाणवी नृत्य में भी वही हाल ….. बंधे बंधाए स्टेप ….. वही घिसे घिसाए विषय ….. मौलिकता का सर्वथा अभाव .
फिर भी इतना तो है कि इस तरह के कार्यक्रमों के माध्यम से छात्र-छात्राओं को अपनी संस्कृति ,अपनी लोकभाषा का ज्ञान तो होता ही है .हरियाणवी लोक परिधान भी अपनी अँधेरी गुफाओं से बाहर आ जाते हैं . जींस -टीशर्ट में फंसी पीढ़ी के लिए वो कौतुक का विषय हो जाते हैं . हँसली ,बोरला ,नथ,हथफूल,
तगड़ी आदि गहने फिर से अपनी हसीन चमक के साथ दिखने लगते हैं . भले ही दो दिन बाद सन्दूकों में रख दिए जाएँ। ओढनी -घागरा हवा में फहरने लगते हैं। चाहे वह हवा दिखावटी/ बनावटी ही क्यों न हो। ब्रज , हरियाणवी के अपनेपन से ओतप्रोत शब्द फिर से बोलने लगते हैं। चाहे कुछ दिन बाद मौन व्रत ही क्यों न ले लें . न मामा से, काना मामा होना भी अच्छा है .
हिंदी नाटक देख कर मन खुश हो गया . नई पीढ़ी अभिनय के प्रति काफी गम्भीर दिखाई देती है। गजब का अभिनय …. आँखों में आंसू लाने की कूवत रखने वाला ……..विषयों के मामले में समसामयिक ….. भाव-प्रवण अभिनय …….
एक बात उल्लेखनीय है कि वहां प्रस्तुत किए गए तीनों ही नाटकों में मुख्य विषय नारी ही था . लडके की तुलना में लडकी के प्रति उपेक्षा का भाव …….. नारी के शारीरिक शोषण की चिरंतन परम्परा …. राजस्थान के रजवाड़ों की पैदायशी गुलाम -गोली की कथा …..
तीनों नाटक एक से बढ़ कर एक …… मंझा हुआ अभिनय दिल को छू गया . आचार्य चतुर सेन के उपन्यास ‘गोली’ पर आधारित नाटक में नारी- दासता व शोषण की प्रतिनिधि चम्पा की करुण कथा भारतीय नारी की ही जीवंत कथा है . राजों -रजवाड़ों ने अपनी सुख सुविधाओं के लिए नारी की भावनाओं को सदा तिलांजलि देने का कार्य ही किया .’गोली’ की कथा अकस्मात ही देवदासियों , वृन्दावन की विधवाओं की याद दिला जाती है। चतुर सेन जी की लेखनी से निकली रचनाएँ उनके अपार अनुभवों की देन हैं . ईदो , वैशाली की नगर वधु , सोना और खून, वयं रक्षाम, धर्मपुत्र आदि . इस नाटक के अलावा नारी उपेक्षा पर आधारित नाटक भी बड़ा अच्छा लगा .कन्या भ्रूण हत्या के ज्वलंत मुद्दे को छूता हुआ यह नाटक अपनी ऊंचाइयों पर पहुंचता है . हरियाणा जैसे राज्य में, जहाँ महिला- पुरुष अनुपात एक खतरनाक,शर्मनाक रूप धारण कर चुका है इस तरह के नाटक पूर्ण प्रासंगिक हैं .बेटे की ललक कैसे एक भरे पूरे सम्भावित जीवन की जड़ें काट देती है ,सोचने की बात है . यह विचार धारा क्या हमारे सभ्य होने पर प्रश्न चिह्न खड़ा नही करती ?
तीसरा नाटक था पूर्णा .एक पागल लडकी पूर्णा . जो समाज के देह शोषक वर्ग का शिकार हो जाती है . आस्था के खोखले पन पर भी चोट करती कहानी पर बेहतरीन अभिनय आँखों में नमी ला देता है .
सभ्यता की नई नई मंजिलों को छूता मनुष्य अभी भी नारी को केवल भोग की वस्तु ही मानता है . उसकी भावनाएं , उसकी इच्छाएँ , उसके सपनों का कोई मोल नही किसी के लिए ?क्या नारी केवल शरीर ही है ? कुछ अंगों का नाम ही नारी है तो हम और हमारा समाज दोनों ही निकृष्ट हैं . लगातार आ रही दुष्कर्म की घटनाएँ यही तो संकेत कर रही हैं . छोटी बच्चियों से लेकर वृद्धाओं तक से हुई घटनाएँ हमारे मानसिक दिवालियापन की घोषणा करती हैं .उस पर हमारे नेता भी माशाल्लाह ….. दुष्कर्मों पर कोई ठोस कदम उठाने की बजाय लडकियों की शादी की उम्र कम करने का बेहतरीन उपाय सुझाती है . अगला उपाय यह भी हो सकता है कि बाजार में जाने से दुष्कर्म की सम्भावना बढ़ जाती है तो महिलाऐं बाजार न जाएँ . स्कूलों में छेड़ छाड़ का शिकार होती हैं तो स्कूल न जाएँ . क्या बात है ? कितना बेहतरीन उपाय सुझाया है .बधाई इन बुद्धि जीवियों की जमात को …….

– प्रभु दयाल हंस

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