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नानक : एक कहानी

शब्दों की दुनिया
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जीवन में कई सारी घटनाएँ ऐसी घट जाती हैं , जो कई सवाल खड़ी कर जाती हैं, कई सवालों का जवाब बन जाती हैं और कई बार उलझन को और घना कर देती हैं .घर का माहौल इस तरह का था, जिसमें अनपढ़ता का अंधकार प्रत्येक विचार पर हावी हो जाता था . बचपन से ही मम्मी ,मौसी, दादी से भूतों की तर्कहीन कहानियाँ सुनते आ रहे थे. एक अजीब सा और अनचाहा डर दिल में बैठ गया था. तर्क नही थे ,जाना नही था ,महसूस तक नही किया था परन्तु अँधेरा और अकेलापन सारी सच्ची झूठी कहानियों की एलबम बन जाता था. एक एक पृष्ठ उलटता जाता और माथे पर पसीने की बूंदों के साथ ही दिल की धडकनें भी अनियंत्रित होने लगतीं. पिता जी का रूख इन सब पर अलग तरह का था. न तो मानना ,न नकारना ……….
कहते –
” देखो भैया ,सारी उम्र निकल गई पर इन अला- बलाओं से कभी पाला नही पड़ा . गुरु जी की कृपा से कभी इस तरह का कोई संकट नही आया . रात के दो- दो बजे तक अकेले , पैदल दूसरे गांवों से घर आना पड़ा है काम करके पर गुरु जी की मेहरबानी रही . काम के सिलसिले में न दिन देखा, न रात देखी . भागते रहे , दौड़ते रहे . कभी किसी से सामना नही हुआ . कुछ असामान्य लगा भी तो उस पर ध्यान ही नही दिया.”

मम्मी के अपने अनुभव थे . ऐसे कथित अनुभव, जो तर्कहीन और अविश्वसनीय थे . मेरे नानाजी सयाने ( ? ) थे. कितने ही भूत प्रेत उनसे डरते थे. कितने ही लोगों को उन्होंने भूतों की गिरफ्त से आजाद कराया था. .उनसे जुडी कितनी ही कहानियाँ मम्मी और मौसी को याद थीं. मम्मी तो एक कदम और आगे बढ़ कर कहतीं –
” बचपन की बात है भैया, काका ( नाना जी ) सुबह ही खेत पर चले गए . मां ने रोटी- सब्जी बनाई और मुझे पकड़ा दी. जा, अपने काका को दे आ . बारह बजने वाले हैं पर उनकी रोटी अब तक नही पहुंची. झूठ जानोगे भैया , डोलची में रोटी- सब्जी रख के चल दी काका के पास खेत पे. टीक दोपहरी पड़ रही थी. खेतों में किसान काम में लगे हुए थे . एक जुते खेत में से जा रही थी तो अचानक आवाज आई-
‘क्या ले जा रही है, शांति . हमे दे दे’ .
चारों ओर नजर दौड़ाई , कोई दिखाई नही पड़ा . फिर आवाज आई –
‘दे दे री ! भूख लग रही है .’
और फिर तो कोई उठा उठा कर खेत में पटकने लगा .मैं समझ ही नही पा रही थी कि हो क्या रहा है .रोटी सब्जी इधर उधर बिखर गईं। मैं जोरों से रोने लगी।
दूर खेतों में काम कर रहे किसान हैरान थे कि लडकी को हुआ क्या है जो खेत में कलामंडी खा रही है . अकेली थी , दूसरा कोई था नही, जो बचाव कर सकता . डोलची दूर पड़ी थी .काफी देर बाद काका दौड़े आए और आकर कोई मन्त्र मारा . तब जाकर जान में जान आई। झूठ जानोगे भैया , सारा शरीर बुरी तरह दुःख रहा था . ऐसा लगता था कि डंडे से कपड़े की तरह धोया गया है। बाद में काका मां पर खूब बरसे कि अकेली छोरी घी- बूरा लेकर क्यों भेजी .बेचारी मां क्या जवाब देती ? तो भैया दुनिया में सब चीज हैं चाहे मानो , मत मानो।”
इस तरह के गौरवशाली अनुभव मम्मी की बड़ी पूँजी हुआ करते। जब भी कोई इस तरह की बात चलती तो घंटों तक विचार विमर्श चलता रहता। जाने अनजाने अनुभवों की एक लम्बी परम्परा बह निकलती। निष्कर्ष यही कि भूतों से बचकर ही रहें तो अच्छा है।
घर में कोई भी हारी -बीमारी होने पर मम्मी का ध्यान झाड़- फूंक की ओर जरुर जाता. डाक्टर को जाएँ या नही पर सयाने के पास जरूर ले जाती। इसके पीछे भी एक बड़ी घटना जुडी हुई है।
बात उन दिनों की है जब पिता जी ने होडल बस अड्डे पर चाय-समोसे की दुकान कर रखी थी। चाय समोसे का काफी अच्छा काम निकलता था वहां। उस समय तक हम तीन ही बच्चे थे घर में — आठ- दस साल का नानक , चार- पांच साल की सावित्री , साल- छह महीने का मैं यानी प्रभु।
पिता जी सुबह जल्दी दुकान खोल लेते थे। हरियाणा रोडवेज के कंडक्टर, ड्राईवर और सुबह जल्दी जाने वाली सवारियां चाय का आनंद उठाने या टाइम पास करने के लिए उस समय दुकान की शोभा बढ़ाते थे। दयाल की दया , गुरु जी की कृपा आदि चिर परिचित जुमले पिता जी के मुंह से रह रह कर निकलते थे। सुबह जल्दी दुकान पर चले आने की वजह से पिता जी के भोजन की समस्या को नानक दूर किया करता था। मम्मी खाना बना कर नानक को दे देती और नानक उसे लेकर चल पड़ता बेपरवाह चाल से दुकान की ओर। अन्धुआ पट्टी से डाढी के रास्ते बस अड्डे का रास्ता उन दिनों काफी हुआ करता था। घुटनों तक रेत , दोनों ओर कीकर , पंजाए पर खड़े दो भुतहा पीपल , चारों ओर फैली वीरानी भी उस मस्त छोरे को विचलित नही कर पाती थी। दुकान पर पहुंच कर खाना पिता जी को देता और आप बस अड्डे की चहल- पहल का आनंद उठाता. पढने लिखने में उसका मन नही लगता था। घर की चिल्ल -पों से बस अड्डे की चिल्ल -पों ज्यादा अच्छी लगती थी उसे। समोसे आदि का स्वाद भी उसे वहां रोके रखता था। समय निकाल कर पिताजी खाना खाने बैठते। खाना खाने के बाद पिता जी दूध से उतारी गई ढेर सारी मलाई बर्तन में रख देते और कुछ मलाई दोने में डाल कर चीनी मिला कर नानक को दे देते। मलाई खाने के बाद उँगलियाँ चाटता नानक( मलाई के स्वाद से अभिभूत ) चल पड़ता घर की ओर। बर्तन में रखी मलाई रास्ते में भी उसे परेशान करती। रह रह कर उसे मलाई का स्वाद आता और यह भी याद आता कि घर पर मलाई खाने को मिले भी कि नहीं। और फिर क्या था …. बीच रास्ते डाढी के पंजाए पर पहरेदारों की तरह खड़े दोनों भुतहा पीपलों की छाया में बैठ जाता और डोलची में से निकाल निकाल कर मलाई खाने लगता। ऐसा अक्सर होता था। घर पर किसी को इस बात का पता नही था।
एक दिन अचानक नानक बीमार पड़ गया। बुखार से सारा शरीर तप रहा था। नीम – हकीमों से दवाइयां लीं पर कोई फायदा नही हुआ। दो- तीन दिन में ही नानक मरणासन्न स्थिति में पहुंच गया। लोगों ने बातें बनानी शुरू की कि भूत- प्रेत का मामला लगता है। ऊपरी हवा का असर है। देखो, लडके की क्या हालत हो गई है। आँखें चढ़ गईं हैं। मम्मी पर तुरंत असर हुआ इन बातों का। सयानों – तांत्रिकों को दिखाया जाने लगा। तथाकथित सयानों ने उगलवा भी लिया कि कौन – सा भूत है और कहाँ से पीछे लगा है. पीपल के नीचे मलाई खाने की बात सामने आ गई। वैसे भी पीपल और भूत का सम्बन्ध तो हम परम्परागत रूप से सुनते ही आए हैं। यह भी माना जाता है कि दूध और दूध से बनी चीजें भूतों को आकर्षित भी करती हैं। यह सिद्ध कर दिया गया कि सारी गडबड पीपल के पेड़ के नीचे मलाई खाने की वजह से हुई है।
पिताजी दुकानदारी में व्यस्त रहते। वैसे भी उन दिनों घर और घर के सदस्यों के प्रति उनकी लापरवाही झलकती थी। दादा -दादी मम्मी को पसंद ही नही करते थे। पिछले जन्म का वैर था।
मम्मी अकेली नानक को गोद में लिए सारी सारी रात गुजार देती. नानक कभी बात करता , कभी सो जाता। जब वह सो जाता तो मम्मी याद करती उसके करतबों को।जब पैदा हुआ था , तब मम्मी अपने मायके में थी। दादी से झगड़ा होने की सूरत में उन्हें कोसी भेज दिया जाता था सजा के तौर पर। उनका गर्भवती होना भी दया की वजह नही बन सका। नानक के पैदा होने के बाद भी काफी दिनों तक यह मन- मुटाव बना रहा। जब वह होडल आया तो लगभग साल भर का रहा होगा। उसे गाहे बगाहे ही दादा -दादी का प्यार – दुलार हासिल होता। पिता जी भी बहुत कम ध्यान देते थे। वह बच्चा अपनी मां के आँचल के सिवा दूसरी कोई छाया ना पा सका। मां भी घर के कार्यों के चलते ज्यादा ध्यान नही दे पाती थी। धीरे धीरे बढ़ता नानक घर से ज्यादा बाहर समय बिताने लगा। कभी किसी के घर रोटी खा ली , कभी किसी के घर सो गया। अलग तरह का दिमाग था उसका। मोटा खाना ,मोटा पहनना। अपनी मस्ती में मस्त….
एक दिन तो गजब ही कर दिया उसने। मम्मी काम में लगी हुई थी। नानक सावित्री और मुझे लिए जमीन पर बैठा हुआ था। दो- ढाई महीने का मैं जमीन पर बिछी बोरी पर पड़ा था और उन दोनों के आकर्षण का केंद्र- बिंदु था। वे मुझसे तरह -तरह की बातें कर रहे थे। मैं भी मुस्कराकर उनका जबाव देने का प्रयास कर रहा था। कभी गुदगुदी करते , कभी पुच्ची लेते , कभी कुछ ,कभी कुछ। वहीं कोने में ही चूल्हा जल रहा था। शायद कुछ पकाने की तैयारी थी या पकाने के बाद की स्थिति में था। मम्मी कहीं इधर -उधर थीं। अचानक नानक के मन में क्या आया कि उसने चिमटे से एक बड़ा सा उपले का अंगार उठाया और मेरे पेट पर लाकर फोड़ दिया। अंगार के स्पर्श के साथ ही मैंने आसमान सर पर उठा लिया। जब तक मम्मी भाग कर आती, तब तक पेट का बड़ा हिस्सा जल गया था। अंगार फोड़ने और मेरे हाथ पैर मारने से उसके टुकड़े हाथ व जांघ को भी जला गए। ऐसी निशानी दे गया जो उसके ना रहने के बाद भी सारी उम्र उसकी याद बन कर चिपकी रहेगी। घर वालों ने उसे खूब मारा पीटा। पर वह जान- बूझ कर थोड़े ही मुझे जलाना चाहता था। यह तो उसका कोई प्रयोग था, जिसे वह मुझ पर आजमा रहा था। ऐसे कितने ही प्रयोग बच्चे करते रहते हैं और जब वे बड़े हो जाते हैं तो यही प्रयोग उनके आनन्द का कारण भी बनते हैं। कई बार ये प्रयोग घातक भी हो जाते हैं, पर कौन ध्यान देता है, कौन बच्चा मानता है किसी की बात। ये तो जिज्ञासा है कि बच्चों को कुछ ना कुछ करने को उकसाती रहती है।
नानक के बारे में मम्मी बताती है कि लड्डू मांगता था , बीड़ी मांगता था। भैया , सच पूछो तो भूतों का ही चक्कर था। हवा ही ले गई मेरे नानक को …………..
और इस तरह …….. नानक का अस्तित्व सिर्फ कहानी बन कर ही रह गया हमारे लिए।

– प्रभु दयाल हंस
दयाल भवन , निकट मसानी मन्दिर , कच्चा तालाब ,
होडल-121106
(हरियाणा )

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