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पिता और मैं – एक दृश्य

शब्दों की दुनिया
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आज मैं अपने अंतर्मन की गहराइयों से उस दृश्य या घटना को खोजने का प्रयास कर रहा हूँ ,जब मैंने सर्वप्रथम सचेतन अपने पिता को देखा था . विभिन्न दृश्य और घटनाएँ आ जा रही हैं .बदलते दृश्यों में से मैं उस दृश्य को पकड़ने का प्रयास कर रहा हूँ .प्रत्येक दृश्य मन को लुभा रहा है . जन्म से लेकर अब तक के सारे पृष्ठ खोल लिए हैं .बचपन के कई दृश्य दिखाई पड़ रहे हैं …………..
खाट में सोया पड़ा हूँ पिता के पेट पर दोनों पांव रखे हुए ………
बाजार से लौटे हैं पिता कुछ लेकर , आवाज दे रहे हैं ………….
किसी बात को लेकर रूठा हुआ हूँ मैं, मनाने की कोशिश में हैं पिता …………
तपती धूप में खाट पर सोये हैं बेसुध , जगाने का असफल प्रयास कर रहा हूँ ………….
और हाँ ………. वह पहला दृश्य जब मैंने पिता को पहली बार अपने दिलो दिमाग से देखा होगा , पहली बार उनसे जुडाब की स्मृति ,पहली बार पिता पुत्र का रिश्ता महसूस किया .
मेरी यादों की अलबम में अटका रह गया वो दृश्य ,जब मैंने पहली बार अपने पिता को देखा .यूँ तो जन्म के बाद कितनी ही बार मैं पिता से मिला हूँगा ,उन्होंने कितनी ही बार गोद में उठा कर प्यार किया होगा ,कितनी ही बार मैंने उनका कुर्ता गीला किया होगा . परन्तु वह उम्र कुछ याद रखने की सामर्थ्य नही रखती थी .इसलिए यही वह दृश्य है जो मेरी स्मृतियों में पिता से सम्बन्धित पहला दृश्य है …………
उस समय मेरी उम्र लगभग तीन- चार साल की रही होगी . किसी कारणवश मेरे सिर में काफी सारी फुंसियाँ निकल आईं थीं. मम्मी का कई बार तकाजा हो चुका था कि प्रभु को दवाई दिलवा दो . हालाँकि इससे पहले मम्मी खुद कई उपाय कर चुकी थी .नीम की छाल भी रगड़ कर लगा चुकी थी .परन्तु जब कोई फायदा नही हुआ तो पिता से कहने की नौबत आई .
मस्त- मौला पिता ,पहलवानी शरीर ,गोरा रंग, निश्छल और सरल हृदय के स्वामी . चेहरे पर नींद के अवशेष दिखाई पड़ रहे थे. मुंह धोया और अपनी प्रिय व एकमात्र सवारी साईकिल उठाई .एक नई दिक्कत सामने आई कि मम्मी को घर में कई काम थे, सो वे हमारे साथ नही जा सकती थी .मैं इतना छोटा था कि पीछे बैठाने में पिता को डर लग रहा था ,आगे बैठाने में साईकिल का डंडा अडचन पैदा कर रहा था .आखिर समाधान यह निकला कि बैठाने से पहले पिता ने अपनी ‘सुआपी’ गले में से खींची और साईकिल के डंडे के चारों ओर लपेट दी . हमारा सिंहासन तैयार हो गया .मैं बड़ी शान से साईकिल के हैंडिल को पकड़ कर बैठ गया. साईकिल की सवारी का भी मेरा पहला अनुभव था . बड़ा मजा आ रहा था .मंथर गति से साईकिल चल रही थी और मैं अज्ञानता का आनंद ले रहा था . प्रत्येक चीज कुतूहल पैदा कर रही थी.पहली बार मैं होडल के बाजार में आया था . पहली बार विभिन्न चीजों से भरी हुई दुकानें मैं देख रहा था . न जाने कितनी ही चीजे पहली बार देखी. पतली सी गलियों से निकल कर किस तरह हम गाँधी चौक पहुंचे ,मुझे याद नही . बाजार की चहल पहल अच्छी लग रही थी. पिता राम- राम की सप्लाई में व्यस्त थे .एकाध पूछ भी लेता कि कहाँ की दौड़ है तो पिता मेरा परिचय देते और समस्या के बारे में बताते .
सबसे पहले पिता मुझे नाई की दुकान पर ले गए और वहां मुझे ‘घोट – मोट’ कराया गया .थोडा रोना- धोना भी हुआ . परन्तु संतरा की गोलियों के लालच में टिक न सका . मुंडन होने के बाद अब मेरे सिर पर फुंसियाँ अपनी पूरी ताकत और संख्या के साथ स्पष्ट दिख रही थीं . वहीं पास ही एक भडभूजे की दुकान थी ,जहाँ वह चना ,जौ , मक्का आदि भूनने का काम करता था. उस भडभूजे ने मेरे सिर पर ‘लेही’ जैसी कोई दवा लगा दी .हम वापस घर चल दिए. रास्ते में अनेक तरह के फल देखने का मौका मिला. पिता से उनका परिचय भी प्राप्त किया.
“चाचा , यू कहाय ?”
“यू सेब है”
” चाचा, मैं तौ सेब ही खाऊंगौ……… और यू कहाय ? ”
“यू अनार है .”
“चाचा, मैं तो अनार ही खाऊंगौ.”
केले के अतिरिक्त किसी और फल का रसास्वादन मुझे याद ही नही था उस समय . पिता ने शायद कोई फल उस समय मुझे दिलाकर असीमित मांगों से मुक्ति पाई.

– प्रभु दयाल हंस

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