Menu
blogid : 12424 postid : 28

प्रेम विवाह और उसकी असफलता के कारण

शब्दों की दुनिया
शब्दों की दुनिया
  • 32 Posts
  • 30 Comments

हमारे धार्मिक /सामाजिक ग्रन्थों में दसियों प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है. सामाजिक स्तर पर उनके उदाहरण भी खूब मिलते हैं. इन विवाहों की प्रकृति और प्रवृति का अंतर इन्हें एक दूसरे से बिलकुल अलग करता है . मूल बात केवल यही होती है कि दो अलग अलग व्यक्ति एक साथ ,एक स्थान पर अपना जीवन जीने का प्रयास करते हैं . वंश बेल की वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए संतानोत्पत्ति को जीवन का एक अति आवश्यक कार्य मानकर मनुष्य इस प्रक्रिया में प्रवृत होते हैं . शारीरिक आवश्यकताएँ , आकर्षण ,मनोरंजन ,गृहस्थ में मिलने वाली सुविधाएँ व् सुरक्षा भी अन्य महत्वपूर्ण कारक है.
मानव सभ्यता के विकास- क्रम की बात करने वाली किताबों के आधार पर देखा जाए तो मानव सभ्यता के विकास-क्रम में विवाह- पद्धति बहुत बाद में आई है . शारीरिक आकर्षण , आवश्यकताएँ , मनोरंजन , सुरक्षा आदि तत्त्व पहले भी उपस्थित थे परन्तु एक विशेष प्रकार के गठ्बन्धन का नकार था . यह मेरा ,यह मेरी ….वाली भावना का अभाव था .हृदय की प्रसन्नता के आधार पर मनुष्य स्वतन्र था . जहाँ उसे प्रसन्नता मिले , जिससे उसे प्रसन्नता मिले, वह उसके वरण हेतु स्वतंत्र था . धीरे धीरे समाज की सभ्यता का पारा चढ़ने लगा और कुछ परिवर्तन , कुछ गठबंधन लिए विवाह पद्धति समाज में आई .तरीके चाहे जो हों , नर और मादा ने जीवन भर साथ रहने का संकल्प लिया . एक दूसरे के प्रति उत्तरदायित्व की भावना का विकास हुआ . आज की हमारी स्थिति उसी विकास क्रम का एक चरण है .
खैर , विवाह हमारे समाज में हजारों वर्षों से निरंतर परम्परा के रूप में मान्य है. विवाह के आठ – दस प्रकारों का उल्लेख मिलता है . ब्रह्म विवाह , असुर विवाह , गन्धर्व विवाह ,राक्षस विवाह आदि विवाहों में गन्धर्व विवाह अर्थात प्रेम विवाह को पूर्ण लोकतान्त्रिक कहा जा सकता है. अन्य विवाहों में, विवाह के पहले आत्मिक लगाव का अभाव मिल सकता है , आपसी सहमति का अभाव हो सकता है.परन्तु प्रेम विवाह में तो आत्मिक, शारीरिक लगाव और आपसी सहमति के नकार का तो प्रश्न ही नही उठता . जब नर मादा एक दूसरे को अच्छी तरह जान लेते हैं, समझ लेते हैं ,शरीर और आत्मा (ह्रदय ) के आधार पर एक दूसरे की अंतरंगता प्राप्त कर लेते हैं तो इस सब की परिणति विवाह के रूप में होती है . समाज का सहयोग इसे ब्रह्म विवाह में और असहयोग प्रेम विवाह में बदल देता है .हमारे समाज में प्रेम विवाह परम्परा काफी पुरानी है . समाज ने अर्जुन -सुभद्रा , भीम- हिड्म्बा आदि के प्रेम विवाह को देखा भी है और मान्यता भी दी है .उस काल के पहले भी इस विवाह के काफी उदाहरण मिलते रहे हैं .आज की बात करें तो प्रेम विवाह के काफी सारे उदाहरण पढने ,सुनने में आते हैं . परन्तु हम यहाँ सभी विवाहों की जन्म कुंडली बनाने का प्रयास नही कर रहे हैं .हम यहाँ बात करना चाहते हैं -प्रेम विवाह की असफलता पर .
यह विवाह प्रकार जैसा कि हम पहले कह चुके हैं कि अन्य की तुलना में ज्यादा लोकतान्त्रिक व् व्यक्ति आधारित है .जो व्यक्ति की इच्छा-अनिच्छा , पसंद-नापसंद , आवश्यकता- अनावश्यकता आदि पर पूर्ण लोकतान्त्रिक तरीके से विचार – विमर्श करने का अवसर उपलब्ध कराता है . इतना सब होने पर भी प्रेम विवाहों के लगातार असफल होने की खबरें विचलित करती हैं . कारणों की तरफ देखें तो कई बातें एक साथ निकल कर सामने आती हैं .
प्रेमी जोड़ा जब शुरू में नैन मटक्का करता है तो वह समय आमतौर पर उनकी किशोरावस्था का होता है . इस उम्र के लड़का लडकी को पता ही नही होता कि वो प्रेम- बंधन में हैं या शारीरिक- आकर्षण का दबाव है . किशोरावस्था एक ऐसी उम्र होती है ,जिसमें विपरीत- लिंगी के प्रति चुम्बकीय खिंचाव होता है .शरीर के विभिन्न हिस्सों में होने वाली हलचल उन्हें एक दूसरे कि ओर खींचने का प्रयास करती है . स्कूल, कालेज के साथी , वहाँ का वातावरण जिसमें उन्हें लगातार मिलने का अवसर प्राप्त होता है ,बड़े सहयोगी होते हैं . ऐसे वातावरण में आदर्श युगल ,प्रति द्वन्द्वी ,खलनायक आदि सभी आवश्यक पात्र उपलब्ध हो जाते हैं . जहाँ किसी बात के लिए नकार होगा , वहाँ हृदय में स्वीकार की जड़ें गहरी होती जातीं हैं.
एक महत्वपूर्ण बात है , यथार्थ से मुंह छिपा कर दिखावे के पंखों पर परवाज़ करना .चाहे वह दिखावा रहन- सहन का हो ,खान-पान का हो ,बोलचाल का हो या व्यवहार का हो . नर मादा को या मादा नर को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए सभी स्तरों पर अपने आप को आदर्श दिखाने का प्रयास करते हैं . खूब ऊटपटांग ढंग से बोलने वाला व्यक्ति भी जब प्रेम के संक्रमण काल में होता है तो खूब विनम्र हो जाता है ,मृदु भाषी हो जाता है . उसका यह व्यवहार अपनी प्रेमिका के आभा मंडल तक ही सीमित रहता है .अच्छे से अच्छा पहनना , अच्छे से अच्छा दिखना , अच्छे से अच्छा व्यवहार ,अच्छे से अच्छा (महंगे से महंगा भी कह सकते हैं ) खान -पान भी उसकी एक विशेषता बन जाती हैं .चाहे असलियत बिलकुल इसके विपरीत हो . रेडीमैड गारमेंट्स ,होटल ,सौन्दर्य प्रसाधन वाले इसी प्रवृति को ध्यान में रख कर खूब लूटते हैं . जीने मरने की कसमें खाना , सपनों की दुनिया का विचरण और यहाँ तक कि जान देने का साहस भी इसी संक्रमण काल की विशेषता है .कहने का तात्पर्य है कि यह समय एक जूनून की तरह होता है . एक नशे की तरह यह आदमी को अपनी गिरफ्त में लेकर कहीं भी ,कुछ भी करवा सकता है .चाँद तारे तोड़ लाने की बातों से लेकर बन्दूकों के साये में हाथ थाम लेने तक सब कुछ प्रेमी जोड़ा कर सकता है .
एक तरह के बनावटी वातावरण में पड़ा हुआ प्रेम का बीज जब पनपने लगता है तो रात दिन की बेचैनी बढ़ जाती है . एकांत अच्छा लगने लगता है.शायरी लिखने -पढने का मन होने लगता है. आदमी की दशा देख कर ही पता लग जाता है कि प्रेम बीज अंकुरित हो चुका है. इसी स्थिति में यदि उसे पता चले कि उसकी प्रेमिका या प्रेमी उसे छोड़ कर किसी दूसरे के साथ चला गया तो समझो देवदास बनने का मौसम आ गया . बहुत बार ऐसा भी होता है कि दोनों घर से भागकर या घर वालों की सहमति से शादी भी कर लेते हैं . आमतौर पर यह प्रक्रिया यानि आँखें चार होने से लेकर शादी तक बड़ी जल्दी घटित होती है . साल दो साल भी बड़ी मुश्किल से लगते हैं .
एक दूसरे के आभा मंडल से प्रभावित होकर शादी करने का फैसला अब सही या गलत के निष्कर्ष की कसौटी पर आता है . किशोरावस्था का दबाव ,शारीरिक आकर्षण ,आत्मिक लगाव भी कसौटी पर होता है .
कुछ दिन साथ रहने पर ही आभामंडल की आभा छंटने लगती है . सपनों का राजकुमार अपनी औकात पर आ जाता है और सपनों की राजकुमारी को अन्य विकल्पों की याद आने लगती है .फूलों सा चेहरा अंगार की तपिश देने लगता है . बात बात पर जान देने की बात करने वाला अब जी जलाने की बात करने लगता है . तमाशा खत्म होने पर लोग अपने अपने घर की राह लेते हैं परन्तु यहाँ तो एक तमाशे का सुखांत हुआ कि दूसरा तमाशा अपने दुखांत होने का संकेत देने लगता है. कोई समय था जब प्यार की पींगे समय की परवाह नही किया करती थी ,अब प्यार भरी बातें करने का मन ही नही करता . साल दो साल में मोहभंग होने लगता है . प्रत्येक सोचता है कि मैंने ऐसा तो नही चाहा था, जैसा मुझे मिला है . बीच बीच में परिस्थितियों से समझौता करने का प्रयास भी किया जाता है परन्तु आँखों में आँखे डाल कर घंटों बैठे रहने की फुर्सत किसे है , संयम किसके पास है . वह आकर्षण ही खत्म हो गया जो मछली को कांटे में फंसे चारे की और खींचता है. यथार्थ के धरातल पर आते ही सपनों की किरचें व्यक्ति को चिडचिडा बना देती हैं .जीवन में रस का अभाव हो जाता है और नीरसता अलगाव की ओर धकेलती है .जिसको देखे बिना चैन नही आता था ,अब उस को देखते ही चैन उडनछू हो जाता है. अन्तत अलगाव होता है .इस बीच यदि बच्चे भी हो गये तो कोढ़ में खाज …… बच्चों की जिन्दगी भी अधर में …….
यह सब इतना जल्दी जल्दी घटित होता है कि ठीक से समझने का मौका भी नही मिलता .दो ऐसे व्यक्ति जिन्होंने साथ जीने मरने की कसमें खाई थीं, आज एक दूसरे को मारने की कसमें खाते दिखाई देते हैं .
सिद्ध तो यही होता है कि आकर्षण अपनी जगह है परन्तु जिम्मेदारियां अपनी जगह हैं .दिखावे और झूठ की नींव पर सच्चाई की इमारत खड़ी नही की जा सकती है .यदि आकर्षण से गृहस्थी की ओर बढना है तो सर्वप्रथम दिखावे का व्यवहार छोड़ना पड़ेगा ,असलियत को स्वीकार करना पड़ेगा .एक दूसरे को एक दो मुलाकातों में ही पहचान लेने की काबिलियत पर अंकुश लगाना पड़ेगा. शारीरिक लगाव जब तक आत्मिक न हो जाए, तब तक संयम बनाए रखना होगा . एक दूसरे को गम्भीरता से लिए बिना मजबूत रिश्तों की नींव नही डाली जा सकती . आप एक दूसरे को परखने के लिए ,जानने के लिए ,समझने के लिए मित्र मंडली की मदद भी ले सकते हैं .हो सके तो पारिवारिक मित्रों या सदस्यों से भी मिलें . अपने सम्बन्धों को लम्बे समय तक बनाए रखने के लिए एक दूसरे को समझने का पर्याप्त मौका दें .जल्दी का काम शैतान का .
किशोरावस्था से निकल कर अपनी रोजी रोटी की व्यवस्था बना कर विवाह की बात सोची जाए तो दिशा और दशा दोनों बेहतर सुखदायी और आदर्श हो सकती है .

– प्रभु दयाल हंस

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply