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मेरा जन्म

शब्दों की दुनिया
शब्दों की दुनिया
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जब याद करता हूँ तो कितनी ही बातें ,कितनी ही घटनाएँ दृष्टि पटल पर कौंध जाती हैं .जीवन चलती हुई उस रेलगाड़ी की तरह जिसने कितने ही स्टेशनों को पीछे छोड़ दिया है और कितने ही स्टेशन उसके इंतजार में पलक पांवड़े बिछाए बैठे हैं .उस रेलगाड़ी की खिड़की से झांकते हैं तो सुंदर सुंदर पहाड़ , नदी, नाले , झरने , मैदान दिखाई देते हैं . मन रम जाता है . आँखे हटाए नही हटती हैं . खूब आनंद लेते हैं ऐसे पलों का परन्तु जब गाड़ी सुरंगों में से अपना रास्ता खोजती है तो आँखों के आगे घना अंधेरा ढीठ की अकड़ता दिखाई देता है .अँधेरे में आनंद नही होता ऐसा नही है परन्तु सब आनंद ले पाएं ये बात भी नही होती .प्रत्येक व्यक्ति उस अँधेरी सुरंग से गुजरती गाड़ी में आँखे बंद करने की कोशिश करता है अपनी सांसों पर काबू करने का असफल प्रयास करता है अंधेरे के भूत उसे पकड़ने दौड़ते हैं. परन्तु क्या सचमुच दौड़ते हैं? क्या अँधेरा इतना ही खतरनाक होता है, जितना हम सोचते हैं . परन्तु जब आँखें अँधेरे की अभ्यस्त हो जाती हैं तो डर छू- मन्तर हो जाता है .चौंधियाती आँखों के आगे का अँधेरा जरुर डरा देता है .
खिड़की से झांकते हुए कितनी ही घाटियाँ ,वादियाँ ,पेड़ -पौधे हाथ हिलाते दिखाई देते हैं .सफर एक दिन का नही हैं सालोंसाल बीत जाते हैं कितने ही पल, कितने ही दृश्य, कितनी ही घटनाएँ, दुर्घटनाएँ ,मन मस्तिष्क में बस जाती हैं . कभी एकांत में बैठ कर सोचता हूँ तो रह रह कर वो सभी चीजें याद आने लगती हैं .
सर्दियों के दिन थे .आज सुबह से ही काम में लगी माँ को कुछ अजीब सा लग रहा था . पेट में पड़ा मिटटी का लौन्धा नीचे सरकता सा महसूस हो रहा था . कबूतर खाने – सा वह मकान देखने में भले ही बहुत छोटा लगे पर शोर शराबे से भरपूर रहता था . सुबह जागने के बाद से ही छोटी छोटी बातों पर ही चीख -चिल्लाहट शुरू हो जाती थी . माँ ,मौसी, दादी तीनों एक से बढ़ कर एक .एक ने किसी बात पर कहना शुरू किया कि महाभारत अपने चरम पर पहुंच कर ही दम लेती थी . पर संकट के समय किसी अनजाने मन्त्र से बंधी तीनों आसपास ही इकट्ठी हो जाती थी . अगर अहंकार ज्यादा ही हाबी होता तो अपने दडबों में ही दुबकी रहती .पर कान दूसरी के दरवाजे पर ही लगे रहते .अभावों ने भी तीनों को चिडचिडा बना दिया था . नानक और सावित्री के बाद मम्मी को तीसरा बच्चा होने वाला है परन्तु काम में लगी हुई मम्मी को किसी का सहारा नही दीखता . नानक को भेजा- जा, अपनी मल्ला ताई को बुला ला .
मल्ला ताई सब सुख- दुःख की साथी ,दौड़ कर आई और तसल्ली देने लगी . राधा बीवी भी साथ आ गयी.बच्चे को भेजा कि अपने बाप को बुला कर ला .काफी इंतजार के बाद चाचा (पिता जी ) झूमते झामते से आए और मम्मी की स्थिति देख कर बोले –
मल्ला भाभी ,क्या परेशानी है ?
ऐ दया ! शांति को बच्चा होने वाला है .जा ! भाग कर दाई को बुला ला. देख, दर्द कितने बढ़ गये हैं.बिचारी कितनी परेशान है ?
अरे भाभी ! भगवान सब ठीक करेगा .वो तो दयालु है . मैं अभी दाई को लाता हूँ .
सांपिन सी लहराती गली से चाचा निकले तो चौपाल पर बैठे ताऊ नत्थी से दुआ सलाम कर बैठे .
अरे दया ! कहाँ भागा जा रहा है ? आजा बैठ ले .
भाई साहब ! थोड़ी जल्दी मैं हूँ .आपकी बहुरिया पर बच्चा होने वाला है . दाई को लेकर आऊं…..पर इतनी धूप देख कर तो हिम्मत ही नही पड़ रही है .थोडा पसीना सुखा लूँ फिर चलूँगा .- खाट पर बैठते हुए चाचा बोले .यूँ ही बातों का क्रम चल निकला और दाई वाली बात दिमाग से निकल गई . बातें करते करते पलकें भारी होने लगी . जुबान लडखड़ाने लगी . और फिर चाचा के खर्राटे चौपाल की दीवारों से टकराने लगे . ताऊ नत्थी के हुक्के की गुडगुडाहट और चाचा के खर्राटों में प्रतियोगिता शुरू हो चुकी थी .
उधर मम्मी का प्रसव पीड़ा से बुरा हाल था. ताई मल्ला ने बच्चों को कमरे से बाहर निकलवा दिया . राधा बीवी आश्चर्य चकित सी पानी गर्म कर रही थी . दाई का इंतजार लम्बा खिचता जा रहा था . ताई मल्ला की नजरें बाहर की लगी थी .पर न कोई आना था न कोई आया .प्रसव पीड़ा की आवाजो ने बच्चों को डरा दिया था .वे रोने लगे थे . राधा बीवी चुप करा रही थी .और ताई मल्ला मम्मी को दिलासा दे रही थी –
बस थोड़ी देर और ……… दया आने ही वाला है……….
दया के खर्राटों की आवाजें उन कहाँ पहुंच सकती थी . जो कह देतीं कि इंतजार करना बेकार है . पर शायद कुछ ऐसा ही हुआ .
पीड़ा की एक लहर ऐसी उठी की कलेजा चीरती निकल गयी .और साथ ही खत्म कर गई इंतजार की घड़ियाँ …….
चूजे सा वः नवजात लगातार रोए जा रहा था .क्या पता! क्यों इतना रो रहा था . ख़ुशी के आंसू थे या मेले में भटके हुए बच्चे के …..
अतीत से पीड़ित था की भविष्य से आशंकित ………? पूरे दिनों का वह शिशु इतना कमजोर था कि देखने में ‘सतमासा’ लगता था .
उसकी आवाज से खर्राटे दबते से जा रहे थे . ताई मल्ला के दिल की धडकनें धीरे धीरे सामान्य हो रही थी . मम्मी आँखें बंद किए न जाने क्या सोच रही थी . राधा बीवी खुश थी और बच्चों को सम्हालने , समझाने में जुटी हुई थी .
– प्रभु दयाल हंस

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