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” अपना वतन ”
गतांक से आगे -७
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नट- सुनो सुन्दरी बाँधो रस्सी , शुरू किया जाये खेला , दिन भर करते मेहनत , मिलता नही एक भी धेला।
नटी- पहले प्रिये मैं कर लूँ थोड़ी साफ -सफाई , इसी राह गुजरेंगे स्वामी आत्मा नन्द ऐसी खबर है आयी।
नट- देश प्रिये सदा ही साधू संतो से हरा भरा है। फिर भी मौके – दर – मौके खर पतवारों ने जम के इसे चरा है।
नटी- ये स्वामी नही ढोंगी -आडम्बरी , मुहँ से बरसते फूल , संतों को बातें प्यारी लागें , दुष्टन को जस काँटा बबूल।
नट-जाओ सामने उस दुकान देखो चढी कढाई , गरमा -गरम बन रही जलेबी ले आओ कलुआ की माई।
नटी- जलेबी नही पक रही पकती असहिष्णुता की खटाई , सदा भीगी सहिष्णुता चासनी ,मिठास फिर भी न आयी।
नट- दाल पुरानी चुक चुकी हाइब्रिड की ये निशानी , सदियाँ कितनी बीत चुकीं हुए न अभी हिन्दुस्तानी।
नटी- सभी नही, बोरे में एक -आध होता सड़ा, गला कटा आलू , जैसे चिड़िया घर में गीदड संग रहते चिड़िया , शेर हाथी , भालू।
नट- सहिष्णुता के धर बन्दूक कंधे , जलेबी देखो इतरायी , जीवन जिसमे पाया उसने भूल बैठा अपनी माई।
नटी – पावन मात्र भूमि अपनी , गंगा यमुना गहना, यहीं जियें यहीं मरें सदा वन्दे मातरम ही कहना।
नट- न कोई रहा न कोई रहेगा लाख बने कोई सिकन्दर , भारत माँ के आदर्श सपूत गाँधी जी के तीन बन्दर।
नटी-जलेबी सीधी कभी हो न सकेगी डालो कितने मंतर , सहिष्णुता की धरती है जग जानत आओ चलें पोर बंदर।
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा.
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