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मूर्ख

kushwaha
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मूर्ख

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मूर्ख है , बड़ा मूर्ख है,  बेवक़ूफ़. बड़ा बेवकूफ  है,  गदहा है क्या , बड़ा गधा है ,  बड़े गधे हो।  इन डिग्रियों को बाँटने के लिए कोई विश्व विद्ययालय मेरे संज्ञान में तो है नही. हाँ पाठकों के संज्ञान  में हो तो अवश्य वे मुझे कृतार्थ करेंगे. अनधिकृत रूप से बड़े पैमाने पर धड़ल्ले से इसका बाजार विस्तार हो रहा है।  आगर शासन  इस पर नियंत्रण की राजाज्ञा  जारी कर दे काफी अतिरिक्त राजस्व की प्राप्ति होगी साथ ही इन डिग्री प्राप्त धारकों के कल्याण की योजना बनाने के सुअवसर के साथ नीति नियंत्रक वाहवाही लूटने के साथ पुष्ट भी हो जाएंगे. मै  जानता  हूँ कि मेरे विचारों से लोग जरूर असहज होंगे , पर उनकी संख्या अधिक नही है. वे मेरे शुभ चिंतक हैं , इसमें दो राय नही।  खम्भा दिख जाये तो कुत्ता अपना स्वाभाविक गुण  कैसे त्याग सकता है? दूसरे  भी तो ये ही करते हैं।  फिर मैं ही क्यों न अपने को हल्का कर लूं.

एक दृष्टान्त समक्ष रख रहा हूँ, क्षेत्रीय अधिकारियों की बैठक चल  रही थी।  समीक्षा के दौरान अधिकारीयों ने कार्य पूरा न होने अथवा धीमी गति के संदर्भ में अपना पक्ष रक्ते हुए कहा की उनके यहाँ लेखाकार या तो हैं नहीं अगर हैं भी तो उन्हें कार्य की जानकारी नही है।  समीक्षा करने वाले अधीकारी ने अपने कार्यालय के तीनो लेखाकारों को बुलाया और डिग्री से अलंकृत करते हुए कहा इनमे से छाँट  लीजिये और ले जाइए।   न जाने तब ये बात मेरे समझ में क्यों नही आयी शायद जिस मूर्ख, गदहे की पदवी  से मुझे आज नवाजा गया है वो मुझे पहले ही मिल जानी चाहिए थी . इन विशेषणों  से  मेरे राजकीय सेवा काल में परोक्ष रूप से मुझे कभी अलंकृत नही किया गया हाँ अपरोक्ष रूप से उसका लाभ मेरे दृष्टिकोण से यह प्राप्त हुआ कि  मेरी चादर पर धूल जरूर गिरी हो मगर चादर काली नही हुई.

आप  सब यह   न सोचियेगा कि इस प्रकार की पदवी प्राप्त होने पर मेरी आत्मा को कोई कष्ट  हुआ है. और इस लिए मैं आज  कलम से कालिख उगल रहा हूँ. मैं हमेशा से ही ऐसा था।

जिस मोहल्ले में मैं रहता था उसमे धोबियों के कई घर थे . मेरी माता जी नियमित रूप से एक रोटी  कुत्ते एवं एक रोटी  गाय के लिए निकालती थीं. उन्हें खिलाने की जिम्मेदारी मेरी थी . एक दिन माता जी ने पूंछा कि कुत्ते की रोटी तो ठीक मगर दूसरी किसे दे आते हो , कल्लू भईया की गाय तो शाम को लौटती है . मैने जब बताया कि रतनू काका के गदहे को खिला देता हूँ , क्या उसे नही खिलाना चाहिये ?

सारी दुनिया का बोझ उठाते हैं , शायद इसीलिए गदहे कहलाते हैं . उसकी सादगी को मूर्खता भी कह सकते हैं .

जीवन में मुझे दो फिल्मों और दो कलाकारों ने प्रभावित किया है और तीसरी फिल्म् मुझे नसीहत देती है कि न मुन्ना न। मगर आदत कैसे बदल सकती है कि खम्भा दिखा और  …?

१- मेरा नाम जोकर— राज कपूर साहब, २- गाइड —देवा नन्द जी।  तीसरी है —तीसरी कसम।  वैसे दावा मै अपने को कबीर दास जी के विचारों से लिपटा होने का करता हूँ.  पर ये दोनों फिल्मे सदैव मेरी मार्ग दर्शक और प्रेरणा श्रोत रही हैं इनके लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास  साहब और आर .के. नारायण साहब का आजीवन ऋणी  हूँ.  तीसरी कसम बार बार गलती न करने की .

इन फिल्मो का हश्र क्या हुआ? आर्थिक द्रष्टिकोण से कमर टूटी और बौद्धिक द्रष्टिकोण से ? फिर भी निर्माता माने नही और फिल्मे बनाते रहे. मै इनको न तों मूर्ख कह सकता हूँ न ही बुद्धिमान , पर जिस प्रकार से इनको जनता ने लिया वो साफ़ इनके कृत्य की ओर इशारा करता है कि कार्य बुद्धिमता पूर्ण  नही था . खग जाने खगही की भाषा को चरितार्थ करते हुए मुझे निर्माता, लेखक और प्रस्तुत कर्ता बहुत भाये  और मुझ मूर्ख राज के पथ प्रदर्शक बने . मूर्खता के कई उदाहरण मेरे जीवन में हैं. जिनका जिक्र आगे समयानुकूल किया जाएगा .

मूर्ख, बेवकूफ और गदहा हो सकता है इसके मायने अलग – अलग हों , या लोग अपने हिसाब से लगाते हों. कोई फर्क नही पड़ने वाला जब तक कि गदहे महाराज को इस संबोधन से कोई आपत्ति न हो . हर्र लगे न फिटकरी जैसी वाली सोच युग में श्रम करके जीवन यापन करने वाला किस श्रेणी का और किस संबोधन से जाना जाता है अब भी कुछ कहने कि आवश्यकता है ?

प्रश्न ये भी है कि किसे मूर्ख माना जाये. मूर्खों की उत्त्पत्ति कैसे हुई. उदगम कहाँ है. . जहाँ तक मेरी जानकारी है सभी मनुष्य एक साथ एक जैसे ही पैदा होते हैं. फर्क इतना हो सकता है कि स्तर अमीर और गरीब घराने, परिवार का हो .मूर्ख और बुद्धिमान मै अंतर कैसे हो. क्या माप दंड होता है ? मै तों समझता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति अपने को बुद्धिमान और दूसरे को बेवकूफ समझता है कम से कम तब तक जब तक ऊँट पहाड़ के नीचे  न आ जाये . ये बात बिलकुल समझ में नही आती की प्रत्येक व्यक्ति अपने को मूर्ख क्यों नही समझता. बुद्धिमान ही क्यों मानता है अपने को . ऐसा नही है इस प्रकार समाज की सोच आज की ही हो ,प्राचीन काल से ऐसी योग्यता का निर्धारण और उन से बचने के  उपाय बताये जाते रहे हैं .

जरा ध्यान से विचार कीजिये कि वे सभी मूर्खता पूर्ण कार्य करते हुए भी विद्दवान माने जाते हैं जो कुलीन परिवार में जन्मते हैं और धन –दौलत के बिस्तर पर करवटें बदलते हैं. जरूरी नही कि मेरे विचार आपसे मेल खाएं, आप भी अपने विवेक का इस्तेमाल कर लेख को अपने विचार दे मुझे अनुग्रहित कर सकते हैं . जीवन में अर्थ ..यानी धन का क्या महत्व है सभी जानते हैं. जितना अपार धन उतने ही सम्मानित ? वही बात कि  गरीब आदमी शराब पिए तों उसके लिए संबोधन दूसरे प्रकार का और धनी मानी व्यक्ति के लिए सम्मानित शब्दों के साथ कि सर ड्रिंक करते हैं.

मूर्ख कौन , इसके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये , मूर्ख को क्या करना चाहिये आदि पर कई जगह कई विचारकों द्वारा मत व्यक्त किये गए हैं . मूर्खों से मित्रता करनी चाहिये ? यदि मित्रता  हो ही जाये तों कैसा सम्बन्ध  रखना चाहिये ? इनकी मित्रता त्यागना कितना घातक हो सकता है ?

मूर्खों के संदर्भ में  काफी दिशा  निर्देश समय समय पर जारी किये गए हैं कि उनसे अगर आपका साबका पड़ जाए तो आप  क्या करें और क्या न करें. मूर्ख व्यक्ति को अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु क्या करना चाहिये.  बुद्धिमानों के लिए कोई  ऐसी सहिंता नही बनी ?

आखिर ये भेद – विभेद की परिपाटी युगों – युगों से चली आ रही है ? दोष आज की पीढ़ियों को फिर क्यों ?

मूर्ख अपने अस्तित्व की रक्षा तभी कर सकता है जब वो विद्द्वानो के मध्य खामोश रहे . यानी मौन मूर्खों की शोभा है ?

प्राकृतिक दोषों को उपाय करके नियंत्रित किया जा सकता है परन्तु मूर्ख नही ?

मूर्ख की संगत सदैव कष्टकारी ही होती है . इस से अच्छा एकांत है ?

मूर्ख होना अपराध है ? बुद्दिमानो का प्रतिशत क्या है ?

यह अलग बात है कि श्रृष्टि में इनका स्वरूप एक ही है. मूर्ख और बुद्धिमान को किस  प्रकार से लिया जाये -ज्ञानी और अज्ञानी ? ज्ञान तों दोनों के ही पास होता है . फिर ? या जो शिक्षित हो वो बुद्धिमान वर्ना मूर्ख ?

मुझे तों इन दोनों को परिभाषित करना कठिन लगता है , शायद आप कर सकें. अल्प ज्ञानी को अहंकार हो सकता है, परन्तु जब वो विद्द्वानो के मध्य जाता है और उनसे सीखता है तब उसे अपनी मूर्खता का अहसास  होता है . क्या विद्द्वान ऐसा करते हैं?

मूर्खता पूर्ण कार्य ..ये कौन से कार्य होते हैं जिसको जो व्यक्ति न करे तों मूर्ख न कहलाये. मेरी नजर में इस संदर्भ में नजरिया अपना – अपना और ख्यालात अपने – अपने,  ज्यादा उपयुक्त पाता हूँ . आप भी देखते होंगे शायद महसूस भी करते होंगे कि प्रत्येक व्यक्ति अपने को काबिल और दूसरे को ?  फिर इसमें किया भी क्या जा सकता है . जो है सो है . अच्छा आप बताइए जो आपसे वोट ले गए और जिन्होंने दिया . यह ठीक है आपने राष्ट्रीय कार्य में योगदान दिया और सबल लोकतंत्र बनाने में बुद्धिमता का परिचय दिया , पर कहीं न कहीं यह भी जरुर महसूस किया होगा कि चन्द लोगों द्वारा आप ठगे तों नही गए ..या उन्होंने आपको ..? बनाया . बुद्धिमानों का प्रतिशत आप स्वयं निकाल लेंगे ?

हर क्षेत्र में मठाधीशी, प्रतिस्पर्धा में अस्वस्थ मानसिकता का प्रदर्शन क्या ये बुद्धिमानी है या मूर्खता . इससे लाभ है या हानि ? मूर्ख को आत्महत्या करते देखा ? फिर. ?

जैसी अवधरणा है कि आप जंगल में रह लीजिये अगर मूर्ख के साथ सारी सुविधा युक्त महल में रहना पड़े तों त्याग दीजिए वर्ना कष्ट के अलावा कुछ हांसिल होने वाला नही. हो सकता है यह सत्य हो. परन्तु मेरा अनुभव इससे अलग है. मूर्ख से खतरा तो घोषित खतरा है परन्तु बुद्धिमानों की संगत सदैव कष्टकारी होती है,

मूर्खो का अस्तित्व है. विश्व स्तर पर इनके लिए कम से कम एक खास दिन मुकर्रर है.

अब यह अलग बात है कि नगर के बाहर विस्तार होने पर सड़कें चौडी बन गयी हों परन्तु कालोनी के भीतर सड़कें ज्यादा चौडी आज भी नही हैं . इन सड़कों पर छोटी गाडी यानि कार आदि भले ही आसानी से बैक हो कर मुड जाय परन्तु बड़ी गाड़ियों को अब भी कठिनाई होती है . अब आप ये कहेंगे इस प्रसंग की यहाँ क्या आवश्यकता बड़ा ही ..? है. आप ठीक  कहते हैं मैं बड़ा मूर्ख हूँ , मै ऐसा क्यों हूँ ? जी यहाँ जिक्र इस लिए किया कि मुझे इन लोगों के बीच सडक पर चलना होता है.

इक्को के शहर में तांगे चल रहे हैं

पलते जहाँ थे घोड़े गधे चर रहे हैं .

अब आपको इस बात पर आपत्ति होगी जब आप अपने को मूर्ख मानते हैं और गधे को भी इसी श्रेणी में रखते हैं तों फिर गधे चर रहे हैं का उल्लेख क्यों कर? कम से कम अपना तों ख्याल किया होता .

देखियें फिर वही बात हुई. जब मै घोषित मूर्ख हूँ तों मुझसे अन्य आचरण कि  अपेक्षा क्योंकर. मैं देखता हूँ लोग विभिन्न विषयों, चरित्रों  पर अपनी वर्तनी से फाग खेलते हैं,. मैने भी अश्व , गदहे आम आदमी की श्रेष्ठता पर कविता गढ़ दी.  वैसे इसके भी पूर्व मेरा प्रिय पात्र कुता भोलू भी रचना जगत में अपनी छटा बिखेर चुका है . ऐसा कोई पहली बार तों हुआ नही है की पशुओं पर काव्य न रचा गया हो , फिल्म न बनी हो या गीत न लिखा गया हो . अश्व का मान तों प्राचीन काल से है. त्रेता ,द्वापर कलियुग में. अश्व को मान  मिला त्रेता में –अश्व मेघ यज्ञ . द्वापर में अश्वों को साधा श्री कृष्ण जी ने सारथी  बन कर . कलियुग में कई दृष्टान्त आपके समक्ष हैं . सबसे बड़ी बात है की सूर्य भगवान भी सात घोड़ों के रथ पर विराजमान हैं .

फिर अश्व को अश्व होने पर गर्व क्यों न होना चाहियेजब कि ये ऐतिहासिक हैं. पूर्वजों की धरोहर हैं .घर से मैदान तकपूजित वंदितसमर्पितहै अश्वमेघ से हल्दी घाटी तक रण भूमि मेंशत्रु को रौंदतेजांबाज सैनिककी तरह इनकी प्रतिष्ठा में चार चांद लगे हैं . अश्वों पर काव्य रचा गया, गीतों का फिल्मांकन हुआ. संवाद बोले गए.

आज स्थिति भिन्न है. अश्व के सम्मान में काफी फर्क आ गया है पर गर्दभ के  साथ ऐसा नही है. गर्दभ होते हुए इसके सम्मान में वृद्धि  ही दिखती है मुझे. भले ही गर्दभ के किसी विशेष चरित्र का बखान त्रेता और द्वापर में न हो परन्तु कलियुग में इनकी संख्या और प्रसिद्धि में कोई कमी मुझे तों नही दिखती. स्वरूप भिन्न हो सकता है . एक गधे की आत्म कथा..साहित्य जगत में कृष्ण चंदर जी द्वारा तो फिर फिल्म में ..मेरा गधा गधों का लीडर ..राजनीति करते हुए, भला कैसे इसे भूला जा सकता है . जरा ध्यान से ही गौर फरमाइयेगा . गर्दभ राज भी चर्चित हैं साहित्य और समाज में. गर्दभ राज  श्रमजीवी और निष्ठावान है आम आदमी की तरह.

यह अलग बात है कि अश्व को आज भी बढ़िया भोजन परोसा जाता है . मालिश होती है यथा संभव एक मुट्ठी आसमान  उसे मिलता है. साथ ही स्नेह की थपथपाहट भी. साथ ही देखता हूँ उसे गली कूचे से ले  मैदान तक चाबुक की थाप पर नृत्य करते आँखों में पट्टी बाँधे दृष्टि बाधित.

गर्दभ राज को  मिलता है  खुला आसमान , भोजन की  समुचित व्यवस्था नहीं, पीठ पर अनचाहा बोझ , कोई स्नेह की थपकी नही.  क्या अंतर है गर्दभ में  और आम आदमी में ?

फिर भी उसे  गर्व है गर्दभ होने पर क्योंकि वह आजाद है .  फिर मुझे क्यों न हो ?

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा  १०-१२-२०१४

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