kushwaha
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कल और आज
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ईंट-गारे से चुनी
ऊँची-ऊँची दीवारें
आँगन में खुलते द्वार
तुलसी चौरा केन्द्र बिंदु
रंभाती गाय
कोने में जलता चूल्हा
रोटी की सोंधी सुगंध
टूटी खाट पर दादी से लिपटे बच्चे
किस्से-कहानी सुनते हुए
नृत्य करता जीवन
फलती-फूलती भारतीय संस्कृति
कंगूरे पर बैठे कपोत
आज भी गवाह हैं
दरकती दीवारें
उनसे लटकती घास
रिश्तों को नया आयाम देता
क्षत-विक्षत तुलसी चौरा
बरसों से बंद द्वार
मौत के सन्नाटे को चीरती
जीवन का एहसास कराती
झींगुरों की ध्वनि
विनष्ट होती संस्कृति
रिश्तों की मिठास
काली रात में ढूँढते जुगनू
आज भी गवाह हैं
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
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