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फाँसी

मेरा पक्ष...
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फाँसी
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न्यूयार्क स्थित ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया की निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा है कि मौत की सज़ा एक नृशंस कृत्य है.इस बात का सबूत नहीं है कि इससे अपराधों को रोकने का मक़सद हल होता है.किसी से उसके जीने का अधिकार नहीं छीना जाना चाहिए !
मुझे नहीं मालुम मीनाक्षी जी ने किसी अपराध का दंश भोगा है या नहीं.कथित रूप से ह्यूमन राइट्स की वक़ालत करते समय उन्हें उन सिसकियों,आहों,कराहों के बारे में भी सोचना चाहिए …जो पीड़ित के हिस्से आती हैं.
अपराधी…किसी निर्दोस के जीने का अधिकार छीन सकता है लेकिन समाज को उचित न्यायिक प्रक्रिया के बाद उसका जीवन लेने का अधिकार नहीं है ?
क्या तर्क है ?
मीनाक्षी जी,ह्यूमन राइट्स की एकांगी व्याख्या नहीं की जा सकती.और जहां तक फाँसी से जुड़ी ‘नृशंसता’ की बात है यह भी आपकी एक पक्षीय सोच को दर्शाता है. यदि कोई ‘आतंकी’ सैकड़ों लोगों की मौत के बाद भी ‘इंसान’ बना रह सकता है तो ऐसे इकलौते ( रेअर ) इंसान को ‘फाँसी’ पर लटका कर क़ानून और शेष समाज कैसे नृशंस हो गया ?
नहीं …मीनाक्षी जी नहीं ! उस ‘बलात्कारी’ के पक्ष में ‘ह्यूमन राइट्स’ की दलीलें देना भी ‘क्राइम’ को बढावा देगा जिसने बलात्कार के बाद सुबूत नष्ट कर देने के इरादे से पीड़िता की ‘योनि’ में लोहे की रॉड भी घुमाई हो ?
माना कि मानवीय विकास के आज के दौर में ‘फाँसी’ नृशंस लगती है लेकिन इसे समाप्त करने से पहले अपराध और अपराधी की ‘नृशंसता’ को भी ध्यान में रखना होगा !
हाँ ! मीनाक्षी जी आप यदि ‘फाँसी’ जैसी सज़ा को राजनीति से मुक्त रखने की बात कहें तो मैं आपके साथ हूँ.
सज़ाओं को धार्मिक नज़रिए से भी देखने की प्रवृत्ति घातक है.
अंत में …सज़ाएं …अपराध को समूल नष्ट नहीं करतीं ! वरन उसकी ‘दर’ को नियंत्रित करती हैं !
सुन रही हैं न …मीनाक्षी जी !!

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