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प्रकृति करे पुकार अरे अब तो तुम संभलो,
मौका आखिरी बार मिला है अब तो संभलो।
जितना दोहन करना था वो तो कर बैठे,
अब क्या अपना कत्ल खुदी खुद तुम कर लोगे?
जंगल बचे,जमीन और न बचे पशु – पक्षी,
जो अब भी जग गए बात होगी यह अच्छी।
मैंने तुमको पाला, मुझी को खत्म करोगे?
आने वाली नस्लों से भी तुम ना डरोगे?
शायद ये तुम भूल गए हो मै हूं कौन,
इसीलिए मै भी थी अब तक इस पर मौन।
मानावता का अंत विकास तुम्हारा होगा,
तब भी क्या मस्तिष्क तुम्हारा हारा होगा?
नहीं नहीं न तब क्यूं ऐसा पागलपन है?
जब की प्रकृति का इतना सुन्दर ये जीवन है।
विश्व विजय अच्छा है लेकिन किस कीमत पर?
पशु – मर,पक्षी – मर, मर- मर-मर, सब बस मर-मर?
विजित न कभी हुआ है कोई इस प्रकृति पर,
क्या तुम घास उगा सकते हो अपने सिर पर?
तब क्यों तुम इस वसुधा को बमबाद किए हो?
हर क्षण हर पल क्यों इसको बर्बाद किए हो?
अब न जगे तो जग न सकोगे बात ये सच्ची,
जो अब भी जग गए बात होगी यह अच्छी।
…….. प्रद्युम्न पाण्डेय
डिस्क्लेमर : उपरोक्त विचारों के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी हैं। जागरण जंक्शन किसी भी दावे या आंकड़े की पुष्टि नहीं करता है।
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