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difference between formalities and attachment.

mona
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आधिकारिकता और अपनेपन में अंतर की मजबूरी

बात उन दिनों की है जब मैं कक्षा नवमीं में पढता था । तब का वाकया मुझे बहुत अच्छी तरह से याद है । हमारे विदृयालय में डीईओ साहब का दौरा होने वाला था । डीईओ के आगमन की तैयारी बडे जोरों से चल रही थी । विद्यालय का पूरा स्टाफ बडी लगन से स्वयं को सौंपे गये दायित्वों को जल्द से जल्द निपटाने में लगा था ।

स्टाफ के ही एक वरिष्ठ गुरूजन जो कि अन्य जिले से स्थानांतरित होकर विद्यालय में पदस्थ हुए थे, उन्हें काफी बाद में पता चला कि जिन डीईओ महोदय का आगमन विद्यालय में होने जा रहा है वे उनके बचपन के पुराने मित्र और सहपाठी हैं । पता चलते ही उनकी बॉंछें खिल उठीं और वे बेहद उत्साहित होकर दोगुनी गति से अपने पुराने सहपाठी और डीईओ के आगमन की तैयारियों में जुट गये ।

विद्यालय के कुछ स्टाफ डीईओ से उन वरिष्ठ गुरूजन की नजदीकियों की जानकारी की भनक लगते ही सक्रिय हो गये तथा उनमें से कुछ अपने व्यक्तिगत और कार्यालयीन लंबित प्रकरणों को उन गुरूजन के माध्यम से डीईओ महोदय से जल्द हल करवाने के प्रयास में जुट गये । वहीं दूसरी ओर विद्यालय के कुछ स्टाफ जलन के कारण कार्यक्रम से अपने आपको पृथक रखने की जुगत भिडाने लगे ।

बहरहाल तय कार्यक्रम के अनुसार निर्धारित तिथि और समय पर डीईओ महोदय का विद्यालय में आगमन हुआ । कार्यालयीन परंपरा के अनुसार उनका समुचित स्वागत सत्कार किया गया । स्वागत की औपचारिकताएॅं पूर्ण होने के बाद विद्यालय के निरीक्षण की कार्रवाई और उसके बाद स्टाफ को संबोधन हुआ । निरीक्षण के दौरान और अपने संबोधन के बीच डीईओ महोदय ने आधिकारिक मर्यादा निभाते हुए अपने पुराने सहपाठी और उस विद्यालय के वरिष्ठ सर को समुचित महत्व और सम्मान भी दिया ।

कार्यक्रम के समापन पर डीईओ महोदय ने अपने पूर्व सहपाठी और मित्र से आधिकारिक रूप से प्रस्थान की बात कही । तिस पर उनके मित्र कुछ समय और साथ बिताने की उम्मीद में केवल इतना ही कह पाये कि अरे अभी तो….. ।

उस अभी तो…… शब्द की व्यापक महत्ता को समझ पाना सभी के लिये सरल न था । उनकी वाणी में अपनेपन के पुराने संबंधों का वो सुखद अहसास तथा बचपन में एक साथ बिताये गये अविस्मरणीय क्षणों की पुनः चर्चा की जिजीविषा थी जिस पर आधिकारिकता तथा कार्यालयीन औपचारिकता ने रोक लगा रखी थी । वे अभी तो ….. के बाद बहुत कुछ कह लेना चाहते थे लेकिन कार्यालयीन मर्यादा व्यक्तिगत संबंधों पर भारी पड गई । डीईओ महोदय भी अपने पुराने मित्र के इन भावों को समझ रहे थे, लेकिन अपने पद की गरिमा के अनुरूप बहुत सी अनुत्तरित बातों को बोझिल मन में समेटे वे अपने साथ लेकर चले गये ।

डीईओ महोदय के विद्यालय से प्रस्थान के बाद कुछ स्टाफ ने सर की भावनाओं को समझा तथा उनको दोबारा समय लेकर डीईओ महोदय से व्यक्तिगत भेंट की सलाह दी तब उनकी मनः स्थिति सामान्य हुई । स्टाफ के कुछ सदस्यों ने दोनों सहपाठियों के व्यवहार की अपने-अपने ढंग से चुटकियॉं भी लीं जो मुझे अच्छा नहीं लगा ।

अक्सर हमें ऐसा सुनने में आता है और हममें से कुछ ऐसी घटनाओं के प्रत्यक्ष रूप से गवाह भी होते हैं, जिनमें हम अपने सम्मुख उपस्थित मनुष्य में अपनापन ढूॅंढते रह जाते हैं और वह चाहकर भी हमें अपनापन न दिखा पाने की मजबूरी लिये हमारे हाथों में अपनी औपचारिकता हमें सौंपकर चला जाता है । ऐसे समय में हम स्वयं भी अपने लोगों की मजबूरी न समझते हुए उसे अपनी उपेक्षा समझ लेने की गलती कर लेते हैं । अधिकतर प्रकरणों में हमारे अपने अंतर्मन में चल रहे अंतर्द्धंद में भावनाएॅं औपचारिकताओं पर भारी पडकर हावी हो जाती हैं और यहीं हम भावुकता के कारण अपनों को पराया समझने की गलती कर जाते हैं ।

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