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देश संकट में है?

हम लोग
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हिंदुस्तान जिस राजनीतिक उथल पुथल के दौर से गुजर रहा है, इतिहास में उसकी नजीरें कम नही है। जितने भी देशो में लोकतंत्र स्थापित है, अधिनायकवाद की काली परछाई हमेशा उन पर मंडराती रहती है। भारत हमेशा से राजनीति शास्त्र के सिद्धांतो का अपवाद रहा है। शायद इसीलिये जिस देश को स्वतंत्रता के तुरंत बाद विस्थापन, और साम्प्रदायिक उन्माद का दंश झेलना पड़ा हो, वह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बनने में सफल रहा। अभी हाल ही के वर्षों में एक उक्ति बड़ी लोकप्रिय हुई है कि ‘लोकतंत्र खतरे में है’, मैं 200% इस बात से सहमत हूं कि वाकई लोकतंत्र खतरे में है, और लोकतंत्र ही नही सम्पूर्ण भारत खतरे में है इसलिये नही की केंद्र में किसी दल विशेष की सरकार है बल्कि इसलिए कि विभिन्न दलों के बीच लड़ाई वैचारिक न होकर व्यक्तिगत बनती जा रही है। अच्छे विचारों की सार्वभौमिक स्वीकार्यता ही स्वस्थ लोकतंत्र का निर्माण करती है ऐसा नही है कि पहली बार केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकार बनी है हाँ इतना जरूर है कि पूर्ण बहुमत की गैर कांग्रेसी सरकार बनी है। उसके बाद से जिस तरह संवैधानिक संस्थाओं पर हमले शुरू हुए, वो किसी भी राष्ट्र चिंतक के कान खड़े कर देने के लिए काफी थे।

चुनाव आयोग से लगाकर सुप्रीम कोर्ट तक, और सेना से लगाकर सीबीआई तक, सब इस द्वंद में घसीटे गए, अपमानित किये गए। मुझे नही पता कौन किस के हित के लिए क्या कर रहा है, पर इतना जरूर समझ मे आ रहा है कि इसमें देश का अहित है। वैचारिक मतभेद का अर्थ ये तो नही होता कि हम समाज और देश को ही दो धड़ो में बांट दे। 2014 के बाद एक भी ऐसा उदाहरण नही मिलता, जहाँ देश की संसद किसी मुद्दे पर एकमत दिखाई दी हो (सवर्ण आरक्षण को छोड़कर)। इसके दो ही अर्थ हो सकते कि या तो वर्तमान सरकार ने कोई अच्छा काम किया ही नही या फिर विपक्ष ने अपनी आंख पर वैमनस्यता की पट्टी बांध रखी है। जी हाँ मैं उसी संसद की बात कर रहा हूँ जिसकी नींव के निर्माण के लिए गांधी जी आवश्यक रूप से श्यामाप्रसाद मुखर्जी और बाबा साहेब को शामिल करने का आग्रह किया था जो तत्कालीन भारत मे कांग्रेस के सबसे बड़े विरोधी थे, वही संसंद आज इतनी असहिष्णु हो गई है कि प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान कागज के हवाईजहाज उड़ाए जाते है, सार्वजनिक मंचो और विदेशों में जाकर भी चोर के नाम से सम्बोधित किया जाता है।

पुतले नेहरू के भी जले थे इंदिरा जी के भी और अटल जी के भी, पर 2014 के पहले का एक भी दृष्टांत ऐसा नही है जिसमे राजनीतिक विरोध के चलते राष्ट्रहित से समझौता कर लिया गया हो। जो परंपरा बनती जा रही है उसमें अधिनायकवाद और विभाजन के बीज निहित है, बुद्धिजीवियों को जिस पर तत्काल संज्ञान लेने की आवश्यकता है।

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