सत्यम्
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अपलक देखतें सपनें
आँखों में था
पूरा ही आकाश
तब भी और अब भी
और थे उसमें से झाँकतें निहारतें
कृतज्ञता के ढेरों सितारें.
और थे उसमें आशाओं के कितने ही कबूतर
जिन्हें उड़ना होता था बहुत
और नीचें धरती पर होता था
सेकडों मील मरुस्थल
और आशाओं निराशाओं के फलते फलियाते
फैलते दावानल.
सम्बन्धों की दूरियों के बीच
कितने ही तो बिम्ब प्रतिबिम्ब थे
और कितनें ही प्रतीक और उदाहरण
किस किस पर छिड़क दें प्राण
और किस किस के ले लें प्राण?
ये कैसी है उड़ान
कि बहुत सी सुनी अनसुनी बातों को
उठाये अपनी पलकों पर
इस तरह
कि वे पलक झपकते ही गिर जाएँ
या हो जाएँ अपलक ही कोई स्वप्न पूरा.
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