सत्यम्
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हवाओं में बसी देहगंध
कहाँ से आ रही है हवा ? ये पता नहीं
बस इसमें बसी देह गंध पहचान आती है.
तभी तो पहचाना कि तुम
बहती हवा की दिशा में हो.
नहीं है इसमें वो सब कुछ
जो एक पहाड़ पर होता है
शिखर, गरिमा,संपदा, और थोड़ी जड़ता भी
बस है तनिक सहजता
जो
सदा उँगलियों में सनी रहती हैं तुम्हारी.
हवा जो बसी थी तुममे
सीधे इधर ही आ रही है
ऐसे जैसे नहीं है चेतना समुद्र के पास
या कि वह तुम्हारी देह गंध को
समीप रखना चाहती है समुद्र के नमक में भिगो कर.
आँखों में भी तुम्हारी होता था जो एक
निर्भीक किन्तु भावुक जंगल
उसकी गिलहरियाँ
स्मृतियों को कर देती है तितर बितर
उन्हें संजोने को रहना पड़ता है चैतन्य
बिखरी बिसरी
स्मृतियों को संजोनें के प्रयासों में
होता है आभास हवाओं के सामीप्य का.
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