सत्यम्
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न ही महुए मैं रहा वो नशा
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अब गिरते हुए पत्तों से
नहीं झरती होली
न ही महुए मैं रहा वो नशा
अब के पतझर वाले इस मौसम मैं.
हवाओ पर हो गई अग्नि सवार
फिर भी नाम उसका आ भर जाने से
होने लगती है कहीं मिटटी नम
और अंकुरित होने लगती है शाम कोई ठंडी सी
उग आती है कोपले कही नम.
मौसम पर उगे उगे से कुछ रंग
सदा साक्ष्य देनें को
रहते हैं तैयार
हवाएं भी रहती है तत्पर
मिटटी की नमी माप लेनें को.
अब परखना होगा
उन अपराधों को जो हो गए थे कभी
हवाओं के विरुद्ध
कुछ दोष जो आ बैठे थे प्रहसनों की प्रस्तावनाओं में
कुछ पटाक्षेपों को जो हैं अभी भी अशेष.
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