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कश्मीर पर मध्यस्थता की मांग समूल समाप्त होनी चाहिए

सत्यम्
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प्रवीण गुगनानी, स्वतंत्र लेखन, टैगोर वार्ड,गंज,बैतूल म.प्र. guni.pra@gmail.com M.09425002270

कश्मीर पर मध्यस्थता की मांग समूल समाप्त होनी चाहिए

पाकिस्तान, अमेरिका और कश्मीर ये तीन शब्दों का समूह वैश्विक राजनीति में एक विवादास्पद शब्द समूह के रूप में जाना जाता है और इन शब्दों के सहारें से भारत विरोधी राजनीति को प्रत्यक्ष रूप से पैना भी किया जाता है और उसे मट्ठा या भोथरा करनें का अभिनय भी किया जाता है. छदम हितकारी महाशक्ति अमेरिका के विश्व राजनीति को चलानें के स्वप्न के साथ साथ ही बड़े होतें पाकिस्तानी प्रपंचों और वितंडों को सदा ही अमेरिकी प्रश्रय मिलता रहा है. अमेरिकी राष्ट्रपति ने नवाज शरीफ से 26/11 के आरोपियों पर व्यवस्थित और गतिज कार्यवाही न करनें सम्बंधित सवाल जवाब कर पाक को असहज स्थिति में ला खड़ा किया. इस असहज स्थिति के निर्मित होनें के बाद भी पाकिस्तानी हौंसलों और दुस्वप्नों की ही मिसाल पिछलें दिनों पुनः देखनें को मिली जब अवसर था पाकिस्तानी प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ की तीन दिवसीय अमेरिका यात्रा का. इस यात्रा में नवाज शरीफ ने एक बार फिर तमाम समझौतों, करारों और ठहरावों को ठुकराते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से कश्मीर मुद्दें पर भारत पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता का आग्रह कर डाला. यद्दपि पाकिस्तान के इस प्रेत प्रलाप को अमेरिकी राष्ट्रपति ने बड़े ही धेर्य से सूना और इस विषय पर सदा की तरह ना का ही जवाब दिया तथापि कश्मीर पर अमेरिका से मध्यस्थता के दुराग्रहों की और अमेरिका के इन्कारों की इस दशकों पुरानी और लम्बी चली आ रही श्रंखला का विश्लेषण करनें और इस चापलूसी भरे आग्रह और दुराशयी इनकार का राजनयिक विश्लेषण करनें की तो बनती ही है.

विश्लेषण करें तो हमें इस घटना के ठीक कुछ दिनों पूर्व की एक दुर्घटना का भी चिंतन करना होगा जिसमें मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का कहना है कि विशेष दर्जे वाले जम्मू-कश्मीर का भारत से संपूर्ण विलय नहीं हुआ है. जिस कश्मीर के विलय के सम्बंध में भारत का राष्ट्रीय पक्ष सदा से यह रहा है कि कश्मीर का भारत में विलय अपरिवर्तनीय और अटल है और यह भी रहा है कि जम्मू कश्मीर भारतीय गणराज्य का अविभाज्य अंग है उस कश्मीर के सन्दर्भ में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का यह कहना कि चार शर्तो के साथ राज्य का देश से विलय जरूर हुआ था, लेकिन अन्य प्रदेशों की तरह वह पूर्ण रूप से देश से नहीं जुड़ पाया है और यही कारण है कि राज्य का अपना अलग संविधान और ध्वज है. श्रीनगर में बुधवार को एक बैठक के दौरान यूरोपियन यूनियन के प्रतिनिधिमंडल में शामिल विभिन्न देशों के राजदूतों से बातचीत में उमर ने कहा कि राजनीतिक पृष्ठभूमि वाली समस्याओं का हल राजनीतिक फ्रेमवर्क में संभव है और यह कार्य पैसे से या जोर जबरदस्ती से समाधान नहीं होगा. आगे यह कहते हुए उमर अब्दुल्ला ने हदें ही पार कर दी कि कश्मीर समस्या वर्ष 1990 में आतंकवाद के साथ नहीं बल्कि विभाजन के समय शुरू हुई थी, जब जम्मू-कश्मीर को छोड़ अन्य सभी राज्यों का फैसला कर दिया गया था. मुख्यमंत्री उमर ने यह भी कहा था कि कश्मीर समस्या के समाधान के लिए जरूरी है कि इसके आंतरिक व बाहरी पहलुओं को देखते हुए केंद्र सरकार, अलगाववादियों व भारत-पाकिस्तान में बातचीत की प्रक्रिया शुरू हो. यूरोपियन प्रतिनिधि मंडल का कश्मीर प्रवास, उमर अब्दुल्ला की इस प्रकार की कुत्सित मुखरता और नवाज शरीफ का अमेरिका यात्रा का यह योग क्या सोचा समझा है? और इस दौरान मध्यस्थता के पुरानें शोक गीत को गानें के क्या अर्थ निकालें जानें चाहिए यह समझनें के लिए किसी वैश्विक स्तर के राजनयिक मष्तिस्क की आवश्यकता तो नहीं ही है!!! कांग्रेसी समर्थन की बैसाखियों पर सरकार चला रहे उमर अब्दुल्ला जिस प्रकार की बात कह रहे है वैसे ही स्वर तो अलगाव वादी कश्मीरी नेता सैयद अली शाह गिलानी व मीरवाइज उमर फारूख सहित अन्य अलगाववादी नेता भी बोल रहे हैं!! अब इस स्थिति में राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और कश्मीरी अलगाव वादियों में में क्या अंतर है यह खोजना मुश्किल प्रतीत होता है.

नवाज शरीफ के इस पाकिस्तानी प्रवास में अमेरिका ने जो उसे विशाल सहायता के भंडारों से लादा नवाजा है, उसमें भी कुछ नया नहीं है बल्कि यह एक सोचे समझे अध्याय का सर्व विदित अंश है. तो क्या अमेरिका और पाकिस्तान के बीच कोई योजना या आपसी समझ है कि पाकिस्तान कश्मीर पर मध्यस्थता की मांग करता रहेगा और अमेरिकी प्रशासन मना करते रहकर भारत की ओर ऊंची दृष्टि से और अनुकम्पा भाव से देखता रहेगा और इस प्रहसन के बीच एशिया में सैन्य जमावट के अमेरिकी स्वप्न आकार लेतें रहेंगे??

संक्षिप्त में कहा जा सकता है कि यह सच है; और यह भी कहा जा सकता है कि पिछलें दस वर्षों में हमारी सप्रंग सरकार कभी भी अपनी वैदेशिक नीति, भाषा, योजना, कर्मणा में पाकिस्तान और अमेरिका के इस प्रहसन को शाब्दिक या योजना गत चोट पहुंचा कर यह बात वैश्विक मंच पर नहीं रख पाई  है कि अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को यह स्पष्ट सन्देश दिया जाना चाहिए कि पाक की मध्यस्थता की मांग पिछलें हुए समझौतों और आपसी ठहरावों को भंग करनें वाली मांग को रखा और दोहराया ही नहीं जाना चाहिए.

इसके पूर्व के भारत अमेरिका और पाकिस्तानी नेताओं के प्रवासों और भेंट कार्यक्रमों का अवलोकन करें तो सदा ही यह मांग उठती रही है और पाक के साथ मिल कर अलगाववादी कश्मीरी  विस्फोटक भूमिकाओं और स्थितियों का निर्माण करतें रहें हैं.
पाकिस्तान यदि बोले तो हम मानते है कि दुश्मन बोल रहा है किन्तु उमर बोलें तो भारतीय जनमानस के जख्म हरे हो जातें हैं क्योकि जम्मू-कश्मीर का “सशर्त विलय” नहीं बल्कि “पूर्ण विलय” हुआ है. जम्मू-कश्मीर रियासत के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को एक विलय पत्र पर हस्ताक्षर करके उसे भारत सरकार के पास भेज दिया था और 27 अक्टूबर 1947 को भारत के गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन द्वारा इस विलय पत्र को उसी रूप में तुरन्त स्वीकार कर लिया कर इस विलय की वैधानिक आधारशिला रख दी गई थी.  यहाँ इस बात का विशेष महत्व है कि महाराजा हरिसिंह का यह विलय पत्र भारत की शेष 560 रियासतों के विलय पत्र से किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं था और इसमें कोई पूर्व शर्त भी नहीं रखी गई थी. तब प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देशहित को अनदेखा करते हुए इस विलय को राज्य की जनता के निर्णय के साथ जोड़ने की घोषणा करके अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल कर दी थी जिसे देश आज भी भुगत रहा है. कश्मीर के संदर्भ में नेहरू की दूसरी बड़ी भूल 26 नवंबर 1949 को संविधानसभा में अनुच्छेद-370 का प्रावधान करवाना है, जिसके कारण इस राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त हुआ था. तब भारतीय संविधान के जनक और तत्कालीन कानून मंत्री डॉ. भीमराव अम्बेडकर और संविधान सभा के कई सदस्यों ने ने इस अनुच्छेद को देशहित में न मानते हुए इसके प्रति अपनी घोर असहमति जताई थी किन्तु इस सब के बाद भी नेहरू जी ने जिद्द करके इस अनुक्छेद ३७० को अस्थाई बताते हुए और शीघ्र समाप्त करने का आश्वासन देकर पारित करा लिया था.

आज कश्मीर विलय दिवस का यह दिन भारतीय जनमानस, सेना और राजनैतिक नेतृत्व के लिए यह प्रण लेनें का ही दिन है कि इस विलय की वैधानिकता पर प्रश्न खड़े करनें वालें तत्वों और भारत-कश्मीर के बीच अलगाव की मूल धारा 370 की समाप्ति ही हमारा लक्ष्य है.

पाकिस्तान, अमेरिका और कश्मीर ये तीन शब्दों का समूह वैश्विक राजनीति में एक विवादास्पद शब्द समूह के रूप में जाना जाता है और इन शब्दों के सहारें से भारत विरोधी राजनीति को प्रत्यक्ष रूप से पैना भी किया जाता है और उसे मट्ठा या भोथरा करनें का अभिनय भी किया जाता है. छदम हितकारी महाशक्ति अमेरिका के विश्व राजनीति को चलानें के स्वप्न के साथ साथ ही बड़े होतें पाकिस्तानी प्रपंचों और वितंडों को सदा ही अमेरिकी प्रश्रय मिलता रहा है. अमेरिकी राष्ट्रपति ने नवाज शरीफ से 26/11 के आरोपियों पर व्यवस्थित और गतिज कार्यवाही न करनें सम्बंधित सवाल जवाब कर पाक को असहज स्थिति में ला खड़ा किया. इस असहज स्थिति के निर्मित होनें के बाद भी पाकिस्तानी हौंसलों और दुस्वप्नों की ही मिसाल पिछलें दिनों पुनः देखनें को मिली जब अवसर था पाकिस्तानी प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ की तीन दिवसीय अमेरिका यात्रा का. इस यात्रा में नवाज शरीफ ने एक बार फिर तमाम समझौतों, करारों और ठहरावों को ठुकराते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से कश्मीर मुद्दें पर भारत पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता का आग्रह कर डाला. यद्दपि पाकिस्तान के इस प्रेत प्रलाप को अमेरिकी राष्ट्रपति ने बड़े ही धेर्य से सूना और इस विषय पर सदा की तरह ना का ही जवाब दिया तथापि कश्मीर पर अमेरिका से मध्यस्थता के दुराग्रहों की और अमेरिका के इन्कारों की इस दशकों पुरानी और लम्बी चली आ रही श्रंखला का विश्लेषण करनें और इस चापलूसी भरे आग्रह और दुराशयी इनकार का राजनयिक विश्लेषण करनें की तो बनती ही है.

विश्लेषण करें तो हमें इस घटना के ठीक कुछ दिनों पूर्व की एक दुर्घटना का भी चिंतन करना होगा जिसमें मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का कहना है कि विशेष दर्जे वाले जम्मू-कश्मीर का भारत से संपूर्ण विलय नहीं हुआ है. जिस कश्मीर के विलय के सम्बंध में भारत का राष्ट्रीय पक्ष सदा से यह रहा है कि कश्मीर का भारत में विलय अपरिवर्तनीय और अटल है और यह भी रहा है कि जम्मू कश्मीर भारतीय गणराज्य का अविभाज्य अंग है उस कश्मीर के सन्दर्भ में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का यह कहना कि चार शर्तो के साथ राज्य का देश से विलय जरूर हुआ था, लेकिन अन्य प्रदेशों की तरह वह पूर्ण रूप से देश से नहीं जुड़ पाया है और यही कारण है कि राज्य का अपना अलग संविधान और ध्वज है. श्रीनगर में बुधवार को एक बैठक के दौरान यूरोपियन यूनियन के प्रतिनिधिमंडल में शामिल विभिन्न देशों के राजदूतों से बातचीत में उमर ने कहा कि राजनीतिक पृष्ठभूमि वाली समस्याओं का हल राजनीतिक फ्रेमवर्क में संभव है और यह कार्य पैसे से या जोर जबरदस्ती से समाधान नहीं होगा. आगे यह कहते हुए उमर अब्दुल्ला ने हदें ही पार कर दी कि कश्मीर समस्या वर्ष 1990 में आतंकवाद के साथ नहीं बल्कि विभाजन के समय शुरू हुई थी, जब जम्मू-कश्मीर को छोड़ अन्य सभी राज्यों का फैसला कर दिया गया था. मुख्यमंत्री उमर ने यह भी कहा था कि कश्मीर समस्या के समाधान के लिए जरूरी है कि इसके आंतरिक व बाहरी पहलुओं को देखते हुए केंद्र सरकार, अलगाववादियों व भारत-पाकिस्तान में बातचीत की प्रक्रिया शुरू हो. यूरोपियन प्रतिनिधि मंडल का कश्मीर प्रवास, उमर अब्दुल्ला की इस प्रकार की कुत्सित मुखरता और नवाज शरीफ का अमेरिका यात्रा का यह योग क्या सोचा समझा है? और इस दौरान मध्यस्थता के पुरानें शोक गीत को गानें के क्या अर्थ निकालें जानें चाहिए यह समझनें के लिए किसी वैश्विक स्तर के राजनयिक मष्तिस्क की आवश्यकता तो नहीं ही है!!! कांग्रेसी समर्थन की बैसाखियों पर सरकार चला रहे उमर अब्दुल्ला जिस प्रकार की बात कह रहे है वैसे ही स्वर तो अलगाव वादी कश्मीरी नेता सैयद अली शाह गिलानी व मीरवाइज उमर फारूख सहित अन्य अलगाववादी नेता भी बोल रहे हैं!! अब इस स्थिति में राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और कश्मीरी अलगाव वादियों में में क्या अंतर है यह खोजना मुश्किल प्रतीत होता है.

नवाज शरीफ के इस पाकिस्तानी प्रवास में अमेरिका ने जो उसे विशाल सहायता के भंडारों से लादा नवाजा है, उसमें भी कुछ नया नहीं है बल्कि यह एक सोचे समझे अध्याय का सर्व विदित अंश है. तो क्या अमेरिका और पाकिस्तान के बीच कोई योजना या आपसी समझ है कि पाकिस्तान कश्मीर पर मध्यस्थता की मांग करता रहेगा और अमेरिकी प्रशासन मना करते रहकर भारत की ओर ऊंची दृष्टि से और अनुकम्पा भाव से देखता रहेगा और इस प्रहसन के बीच एशिया में सैन्य जमावट के अमेरिकी स्वप्न आकार लेतें रहेंगे??

संक्षिप्त में कहा जा सकता है कि यह सच है; और यह भी कहा जा सकता है कि पिछलें दस वर्षों में हमारी सप्रंग सरकार कभी भी अपनी वैदेशिक नीति, भाषा, योजना, कर्मणा में पाकिस्तान और अमेरिका के इस प्रहसन को शाब्दिक या योजना गत चोट पहुंचा कर यह बात वैश्विक मंच पर नहीं रख पाई  है कि अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को यह स्पष्ट सन्देश दिया जाना चाहिए कि पाक की मध्यस्थता की मांग पिछलें हुए समझौतों और आपसी ठहरावों को भंग करनें वाली मांग को रखा और दोहराया ही नहीं जाना चाहिए.

इसके पूर्व के भारत अमेरिका और पाकिस्तानी नेताओं के प्रवासों और भेंट कार्यक्रमों का अवलोकन करें तो सदा ही यह मांग उठती रही है और पाक के साथ मिल कर अलगाववादी कश्मीरी  विस्फोटक भूमिकाओं और स्थितियों का निर्माण करतें रहें हैं.
पाकिस्तान यदि बोले तो हम मानते है कि दुश्मन बोल रहा है किन्तु उमर बोलें तो भारतीय जनमानस के जख्म हरे हो जातें हैं क्योकि जम्मू-कश्मीर का “सशर्त विलय” नहीं बल्कि “पूर्ण विलय” हुआ है. जम्मू-कश्मीर रियासत के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को एक विलय पत्र पर हस्ताक्षर करके उसे भारत सरकार के पास भेज दिया था और 27 अक्टूबर 1947 को भारत के गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन द्वारा इस विलय पत्र को उसी रूप में तुरन्त स्वीकार कर लिया कर इस विलय की वैधानिक आधारशिला रख दी गई थी.  यहाँ इस बात का विशेष महत्व है कि महाराजा हरिसिंह का यह विलय पत्र भारत की शेष 560 रियासतों के विलय पत्र से किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं था और इसमें कोई पूर्व शर्त भी नहीं रखी गई थी. तब प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देशहित को अनदेखा करते हुए इस विलय को राज्य की जनता के निर्णय के साथ जोड़ने की घोषणा करके अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल कर दी थी जिसे देश आज भी भुगत रहा है. कश्मीर के संदर्भ में नेहरू की दूसरी बड़ी भूल 26 नवंबर 1949 को संविधानसभा में अनुच्छेद-370 का प्रावधान करवाना है, जिसके कारण इस राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त हुआ था. तब भारतीय संविधान के जनक और तत्कालीन कानून मंत्री डॉ. भीमराव अम्बेडकर और संविधान सभा के कई सदस्यों ने ने इस अनुच्छेद को देशहित में न मानते हुए इसके प्रति अपनी घोर असहमति जताई थी किन्तु इस सब के बाद भी नेहरू जी ने जिद्द करके इस अनुक्छेद ३७० को अस्थाई बताते हुए और शीघ्र समाप्त करने का आश्वासन देकर पारित करा लिया था.

आज कश्मीर विलय दिवस का यह दिन भारतीय जनमानस, सेना और राजनैतिक नेतृत्व के लिए यह प्रण लेनें का ही दिन है कि इस विलय की वैधानिकता पर प्रश्न खड़े करनें वालें तत्वों और भारत-कश्मीर के बीच अलगाव की मूल धारा 370 की समाप्ति ही हमारा लक्ष्य है.

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