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चीन का 1954 का समझौता और 1962 का हमला याद रखना होगा हमें!!

सत्यम्
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प्रवीण गुगनानी, टैगोर वार्ड, सिविल लाइन, गंज, बैतूल.m. 09425002270-guni.pra@gmail.com

चीन का 1954 का समझौता और 1962 का हमला याद रखना होगा हमें!!

गत दिनों में चीन के नवनियुक्त प्रधानमन्त्री ली किशियांग ने निर्वाचन के बाद के अपनें प्रथम विदेश प्रवास के रूप में भारत आकर हमें पर्याप्त सम्मान दिया और बातचीत के बाद हुए समझौतों के वातावरण में स्पष्टतः विश्वास की भूमि को और अधिक पुख्ता करनें का जोरदारप्रयास भी  किया. कुल मिलाकर स्थितियां उत्साहवर्धक हुई हैं. इस समझौते में भारत-चीन के बीच विश्वास और सौहाद्र बढ़ा दिखाई पद रहा है किन्तु-

-भारत चीन के सम्बन्ध में हम हमारी राष्ट्रीय स्मृतियों और अनुभवों के पन्नो को यदि हम पलटाये तो स्पष्ट तौर यह देखनें में आता है कि चीन एक विस्तार वादी और क्रूर प्रवृत्ति वाला देश है. हमारें इस अनुभव को ठप्पा लगानें के लिए वह समझौता पर्याप्त है जो 29 अप्रैल, सन् 1954को किया गया था. इस भारत-चीन समझौते में सर्वप्रथम उन पाँच सिद्धांतों को आधारभूत मानकर संधि की गई थी जिसे हमारी कालजयी संस्कृति में पंचशील कहा जाता है. पंचशील शब्द ऐतिहासिक बौद्ध अभिलेखों से लिया गया है जो कि बौद्ध भिक्षुओं का आचरण निर्धारित करने वाले पाँच निषेध या मापदंड होते हैं. देश के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु की सरकार ने यह संधि की थी. इस समझौते के परिचय को पंचशील से जोड़ा गया और एशियाई-अफ्रीकी और बाद में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था वाले देशों में मैत्री तथा सहयोग का आधार यह संधि बनी थी. 25 जून, 1954 को चीन के प्रधान मंत्री श्री चाऊ एन लाई भारत की राजकीय यात्रा पर आए और उनकी यात्रा की समाप्ति पर जो संयुक्त विज्ञप्ति प्रकाशित हुई उसमें घोषणा की गई कि वे पंचशील के पाँच सिद्धांतों का परिपालन करेंगे. दोनों प्रधान मंत्रियों ने अंतरराष्ट्रीय व्यवहार और परस्पर सौहाद्र और विकास के आवश्यक सिद्धांतों के रूप में पंचशील के सिद्धांतों की व्यापक घोषणा कर इनकें पालन और इसकी मूल भावना के सरंक्षण का संकल्प किया था. किन्तु इतिहास साक्षी है कि चीन समय समय पर इस संधि की मूल भावना को ठेस पहुंचा भारत के हितों को चोटिल करता रहा और अंततः 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर इस संधि को ध्वस्त कर दिया था.

भारत चीन युद्ध के सन्दर्भों में भारत सरकार का रवैया भी बड़ा ही रहस्यमयी रहा है जिससे चीन के क्रूर कारनामों के प्रति भारत का जनमानस अब भी अपरिचित है, और इस युद्ध से सम्बंधित दस्तावेज अब भी तालों में कैद हैं. बहुत मांगो और असंतोष के बाद भारत सरकार ने 1969 में भारत चीन युद्द्घ पर एक श्वेत पत्र प्रकाशित किया और इसके बाद 12 श्वेत पत्र जारी किये गए किन्तु इन सब में इन प्रश्नों के प्रति जो उत्तर होते थे उनमें सत्य और आत्मा का अभाव ही रहा. आत्माहीन और महज शब्द भाषा के खेल के रूप में प्रकाशित ये श्वेत पत्र और इनकें बाद की परिस्थितियाँ आज भी इस देश के जनमानस को यह जवाब नहीं दे पाई हैं कि चीन ने हम पर हमला कर हमारी 14000 किमी भूमि को कैसे कब्जा लिया. 21 नवम्बर, 1962 को चीन स्वमेव ही इस कब्जे के बाद वापिस चला गया था. पंडित नेहरु के गंजें सर वाले दृष्टांत के संसद में होनें के बाद संसद भारत की एक एक इंच जमीं को चीन से वापिस लेनें के संकल्प और कसमें दोहराती रही पर हम एक एक इंच क्या एक इंच भी भूमि चीन से वापिस न ले पानें का दुःख अपनी छाती पर लिए नयें समझौते और व्यापार कर रहे हैं!!! ये हमारी मानसिक विकलांगता नहीं तो और क्या है?? चीन ने तब हम पर क्यों आक्रमण किया, क्यों चीन वापस चला गया, क्या बातें हुर्इं, दस्तावेज क्या कहते हैं? ये सभी कुछ आज रहस्य ही है. जवाहर लाल नेहरु ने एक एंग्लो-इन्डियन जनरल हेंडरसन को युद्ध के ऊपर शोधपूर्ण रिपोर्ट बनाकर प्रस्तुत करनें का आदेश दिया था जो कि 1963 में प्रस्तुत कर दी गई थी किन्तु देश की संसद और जनता आज भी इस रिपोर्ट को पढनें और अध्ययन कर कुछ सबक सीखनें से वंचित ही है.

अब एक बार पुनः भारत चीन के बीच महत्वपूर्ण समझौता हुआ है तब पुरानें समझौतों और युद्ध का स्मरण जायज हो जाता है. पिछलें दिनों लद्दाख में लाइन आफ एक्चुअल कंट्रोल पर उपजी तनाव पूर्ण परिस्थितियों भारत की भूमि पर उन्नीस किमी तक चुनी सेना के घुस आनें और फिर वापिस चले जानें की कटु परिस्थितियों में भारत चीन के प्रधानमंत्रियों ली किशियांग और मनमोहन सिंह ने वीजा, कैलाश मान सरोवर, जल संसाधन, कारोबार, ब्रहमपुत्र  आदि आठ मुद्दों पर जब समझौता किया तो निश्चित ही 1962 के युद्ध की पीड़ा और इस युद्ध में चीन द्वारा 1954 में बनें विश्वास की धज्जियां उड़ानें का चरित्र याद आ गया. चीन के समझौते में जिस प्रकार पुरानें जारी और ज्वलंत विषयों और मुद्दों को विस्मृत किया गया उससे लगा कि ड्रेगन अब डराकर गढ़ जीतनें के बजाय नहीं सम्मोहित कर गढ़ भेद्नें की चाल चल रहा है.समय जिस तेजी से बदला है और भारत का बाजार जिस तेजी से विशालकाय होकर चीन के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो गया है उससे चीन को भारत की आवश्यकता महसूस होना स्वाभाविक हो गया है. इस तथ्य को भी भारत समझ कर हाल के समझौते में किसी भी प्रकार से हावी होकर किसी भी पुरानें विषय को हल नहीं करा पाया और एक हारें हुए जुआरी की भाँती बिसात से उठ गया है. चीन से 50 अरब डालर का सामान खरीदने और मात्र 20 अरब डालर के सामान को बेचनें के संतुलन वाले ड्रेगन व्यापारी की मजबूरियों का लाभ हम उठा ही नहीं पाए.

आजादी के बाद से अब तक भारत सरकार जिस प्रकार तिब्बत की समस्या को विश्व समुदाय के सामनें प्रखरता से प्रस्तुत करती रही है वह गायब हो गई है यह खेद का विषय नहीं तो और क्या है? हम और हमारें देश के मानावाधिकार वादी कैसे भूल गए कि तिब्बत के दो प्रान्तों “खाम” और “आमदो” जिन्हें चीन तिब्बत का हिस्सा माननें से इनकार करता है वहां के 114 युवा तिब्बतियों के आत्मदाह से उपजी आंच में यह समझौता एक विडंबना बन गया है. हमारी विदेश नीति के एक हिस्सें के रूप में हम विश्व समुदाय पर यह आरोप लगातें रहें हैं कि चीन की बढ़ती शक्ति के सामनें पूरा विश्व तिब्बतियों के दर्द और दलाई लामा के निर्वासन पर मौन होते जा रहा है. किन्तु आज हम स्वयं उसी प्रवृत्ति का कुटिल अनुसरण करते दिखाई दे रहें हैं तो यह हमारी इतिहास से मूंह मोड्नें की प्रवृत्ति का ही परिचायक है. कहना ही होगा कि चीनी राजनयिकों की कलमों में जो स्याही भरी होती है वह आत्मदाह करनें वाले तिब्बती युवकों के रक्त की बनी होती है.

चीन ने पिछले वर्षों में कश्मीरी युवकों को भारतीय परिचय पत्रों पर नहीं वरन अन्य दस्तावेजों के आधार पर वीजा देना प्रारम्भ किया और भारत के भीतरी मामलों में सीधा अनुचित हस्तक्षेप किया था उसे भी विस्मृत कर देना या ब्रह्मपुत्र पर बन चुके बांधों से उपजी स्थितियों के निवारण के बजाय केवल वर्षा, बाढ़ आदि की जानकारियों के आश्वासन से संतुष्ट हो जाना कहीं हमें एक एतिहासिक गलती की ओर न धकेल दे. हाल ही में पाकिस्तान से ग्वादर बंदरगाह का अधिग्रहण कर जिस प्रकार चीन वहां लाखों अरब डालर का निवेश कर हम पर चौकसी करनें की क्षमता का विकास कर चुका है वह भी खतरे की घंटी नहीं बल्कि बड़ा घंटा है जो बीजिंग बजा रहा है किन्तु विनम्र दिल्ली है कि सुनती नहीं. हमारी दिल्ली को याद रखना होगा कि इतिहास के सिखाये सबक याद न रखनें से हम पुनः 1962 की स्थिति में खड़े हो सकते हैं. हमारें सभी पडोसी राष्ट्रों पाकिस्तान, श्रीलंका, बर्मा, म्यांमार,बांग्लादेश, नेपाल आदि को चीन किसी न किसी प्रकार कृतार्थ कर अपनी शर्तों में बाँध चुका है इस स्थिति का व्यवस्थित चिंतन कथन हमारें प्रधान मंत्री चीनी प्रधान मंत्री से नहीं कर पायें हैं.

मनमोहन सरकार ने चीन से समझौते का बड़ा काम तो कर लिया है किन्तु मैकमोहन रेखा पर चीनी सहमति का छोटा काम वे नहीं करा पाए हैं! मनमोहन यह भी भूल गए कि हमारें प्रभुता संपन्न राष्ट्र के अभिन्न भाग अरुणाचल को भारत में दिखानें वालें किसी भी देश में प्रकाशित नक्शें पर चीन आपत्ति लेता है!! मन मोहन यह भी भूल गए कि बीजिंग भारत-चीन सीमा को 2000 किमी का कहता है जबकि हमारी दिल्ली इसे वर्षों से 4000 किमी बताती रही है!! हमारें प्रधान मंत्री यह भी भूल गए कि चीन ब्रह्मपुत्र के बहाव में रेडियो धर्मी कचरा निरंतर नकेवल स्वयं डाल रहा है बल्कि अन्य देशों का परमाणु कचरा भी वह पैसे लेकर ब्रह्मपुत्र में डाल देता है जो अंततः भारतीय क्षेत्रों और जनजीवन हेतु एक प्राणलेवा त्रासदी बनता जा रहा है. हमारें प्रधान मंत्री इस समझौते के कारण कितनी ही ऐसी बातें और विषय विस्मृत कर गएँ हैं जो हमें निरंतर हानि और हमारी आनें वाली पीढ़ियों को हमारी गलतियां उसी तरह याद दिलाती रहेंगी जैसे आज हम अक्साई चीन की विशाल भूमि पर चीन के कब्जे को देख देख कर दुखी होते रहते हैं. हमें यह याद रखना चाहिए कि हमारें अक्साई की हजारों वर्ग किमी भूमि पर कब्जा करनें की चीनी कर्कश हुंकार को भारत का सत्ता तंत्र और जनता पंडित नेहरु के भारत-चीन भाई भाई के नारें के गगन भेदी शोर में सुन ही नहीं पा रही थी और जब आँखें खुली तो देर चुकी थी.

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