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गौ सरंक्षण और देवबंद दारूल उलूम का फतवा

सत्यम्
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दारुल उलूम का फतवा स्थापित कर सकता है सौहाद्र का नया इतिहास

भारतीय मुसलमानों को छोड़ना चाहिए अंग्रेजों कीदी हुई गौमांस की कुटेव

गौवंश वध हमारें विशाल लोकतान्त्रिक देश भारत के लिए अब एक चुनौती बन गया है. देश में प्रतिदिन शासन प्रशासन के सामनें गौ वध और अवैध गौ तस्करी के मामलें न केवल दैनंदिन के प्रशासनिक कार्यों के बोझ और चुनौती को बढ़ातें हैं बल्कि सामाजिक समरसता, सौहाद्र और सद्भाव के वातावरण में भी जहर घोलनें वालें सिद्ध होते हैं. मुस्लिमों के बड़े त्यौहार बकरीद के एन पहले कल ही देवबंद की सर्वमान्य और मुस्लिम विश्व की प्रतिष्ठित और गणमान्य संस्था दारूल उलूम ने गौ वध के सन्दर्भों में एक बड़ी, सार्थक और सद्भावी पहल जारी की है. दारूल उलूम के जनसंपर्क अधिकारी अशरफ अस्मानी ने एक आधिकारिक अपील जारी करते हुए कहा है कि गाय हिन्दू समाज के लिए पूज्यनीय विषय है और मुसलमानों को हिन्दू भाइयों की भावनाओं का सम्मान करते हुए गौ मांस का उपयोग नहीं करना चाहिए. देवबंद की ही दूसरी शीर्ष मुस्लिम संस्था जो कि देवबंदी मुसलक की शिक्षा व्यवस्था संभालती है   “दारूल उलूम वक्फ” ने भी सम्पूर्ण भारत के मुसलमानों से इस आशय की अपील जारी करते हुए गौ मांस का उपयोग नहीं करने की सलाह दी है.

गौ वध को लेकर भारत के अधिकाँश क्षेत्रों में प्रायः हिन्दू मुसलमान आमने सामने तनाव की मुद्रा में खड़े कानून व्यवस्था को चुनौती देते दिखाई देते हैं. स्वतन्त्रता प्राप्ति के तुरंत बाद के दिनों में कश्मीर पर हुए पाकिस्तान के पहले हमले के बाद 4 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी ने अपनी शाम की प्रार्थना सभा में बोलते हुए कहा था कि आओ हम ईश्वर से प्रार्थना करें कि वह हमें ऐसी शक्ति दे कि या तो हम (भारत और पाकिस्तान या हिन्दू और मुसलमान) एक दूसरे के साथ मैत्रीपूर्वक रहना सीख लें और यदि हमें लड़ना ही है, तो एक बार आर-पार की लड़ाई कर लें। यह बात मूर्खतापूर्ण लग सकती है, लेकिन देर-सबेर इससे हममें शुद्धता आ जाएगी (लेट अस प्रे टू गॉड इज टु ग्रांट दैट वी मे आइदर लर्न टु लिव इन एमिटी विद ईच अदर आॅर इफ वी मस्ट फाइट टू लेट अस फाइट टु द वेरी एंड दैट मे बी फॉली बट सूनर आॅर लेटर इट विल प्योरीफाई अस). निश्चित तौर पर उन्हें यही आशा रही होगी कि हम मैत्री पूर्वक रहें और एक दुसरे के धार्मिक विश्वासों का आदर करते हुए अपने अपने आचरण में शुद्धता लायें. दारूल उलूम का हाल ही में जारी यह फतवा मुस्लिमों के आचरण के शुद्धिकरण के साथ साथ आपसी सद्भाव और सामाजिक समरसता का एक बड़ा औजार सिद्ध हो सकता है.

वैसे मुस्लिमों में गौ मांस की परम्परा बहुत पुरानी नहीं है बल्कि यह डिवाइड एंड रुल की ब्रिटिश कालीन विघटनकारी नीति का उत्पादित विचार है. गाय के सम्बन्ध में मुस्लिम इतिहास कुछ और ही कहता है. मुस्लिम शासकों ही नहीं बल्कि कई मुस्लिम संत भी ऐसे हुए हैं जिन्होनें अपने उपदेशों में गाय और गौ वंश के सन्दर्भों में सार्थक बातें की हैं. उदहारण स्वरुप उम्मुल मोमिनीन (हज़रत मुहम्मद साहब की पत्नी), नबी-ए-करीम हज़रत मुहम्मद सलल्लाह,(इबने मसूद रज़ि व हयातुल हैवान) आदि ने गौमांस भक्षण की आलोचना और गाय के दूध घी को ईश्वर का प्रसाद बताया है. मुस्लिमों के पवित्र ग्रन्थ कुरान में सात आयतें ऐसी हैं, जिनमें दूध और ऊन देने वाले पशुओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट की गई है और गौवंश से मानव जाति को मिलने वाली सौगातों के लिए उनका आभार जताया गया है.

वस्तुतः भारत में गौ हत्या को बढ़ावा देने में अंग्रेजों ने अहम भूमिका निभाई. जब सन 1700  में अंग्रेज़ भारत में व्यापारी बनकर आए थे, उस वक्त तक यहां गाय और सुअर का वध नहीं किया जाता था. हिन्दू गाय को पूजनीय मानते थे और मुसलमान सुअर का नाम तक लेना पसंद नहीं करते, लेकिन अंग्रेज़ इन दोनों ही पशुओं के मांस के शौकीन थे और उन्हें इसमें भारत पर कब्जा करनें हेतु विघटन कारी नीतियों के बीज बोने का मौका भी दिखा. उन्होंने मुसलमानों को भड़काया कि कुरान में कहीं भी नहीं लिखा है कि गौवध नहीं करना चाहिए. उन्होंने मुसलमानों को गौमांस का व्यापार करनें हेतु लालच भी दिया और कुछ लोग उनके झांसे में आ गए. इसी तरह उन्होंने दलित हिन्दुओं को सुअर के मांस की बिक्री कर मोटी रक़म कमाने का झांसा दिया.

उल्लेखनीय  है कि यूरोप दो हज़ार बरसों से गाय के मांस का प्रमुख उपभोक्ता रहा है. भारत में भी अपने आगमन के साथ ही अंग्रेज़ों ने यहां गौ हत्या शुरू करा दी और  18वीं सदी के आखिर तक बड़े पैमाने पर गौ हत्या होने लगी. यूरोप की ही तर्ज पर अंग्रेजों की बंगाल, मद्रास और बम्बई प्रेसीडेंसी सेना के रसद विभागों ने देशभर में कसाईखाने बनवाए. जैसे-जैसे भारत में अंग्रेजी सेना और अधिकारियों की तादाद बढ़ने लगी वैसे-वैसे ही गौहत्या में भी बढ़ोतरी होती गई. ख़ास बात यह रही कि गौहत्या और सुअर हत्या की वजह से अंग्रेज़ों की हिन्दू और मुसलमानों में फूट डालने का भी मौका मिल गया. इसी दौरान हिन्दू संगठनों ने गौहत्या के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ दी थी तब  आखिरकार महारानी विक्टोरिया ने वायसराय लैंस डाऊन को पत्र लिखा. पत्र में महारानी ने कहा-”हालांकि मुसलमानों द्वारा की जा रही गौ हत्या आंदोलन का कारण बनी है, लेकिन हकीकत में यह हमारे खिलाफ है, क्योंकि मुसलमानों से कहीं ज्यादा हम गौ हत्या कराते हैं. इसके जरिये ही हमारे सैनिकों को गौ मांस मुहैया हो पाता है.”

आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़र ने भी 28 जुलाई 1857 को बकरीद के मौके पर गाय की कुर्बानी न करने का फ़रमान जारी किया था. साथ ही यह भी चेतावनी दी थी कि जो भी गौहत्या करने या कराने का दोषी पाया जाएगा उसे मौत की सज़ा दी जाएगी. इसके बाद 1892 में देश के विभिन्न हिस्सों से सरकार को हस्ताक्षर-पत्र भेजकर गौ हत्या पर रोक लगाने की मांग की जाने लगी. इन पत्रों पर हिन्दुओं के साथ मुसलमानों के भी हस्ताक्षर होते थे. इस समय भी मुस्लिम राष्ट्रीय मंच द्वारा देशभर के मुसलमानों के बीच एक हस्ताक्षर अभियान चलाया जा रहा है, जिसमें केंद्र सरकार से गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने और भारतीय गौवंश की रक्षा के लिए कठोर कानून बनाए जाने की मांग की गई है.

निश्चित ही भारत में रह रहे मुस्लिम बंधु राष्ट्रव्यापी निर्णय लेकर और इन एतिहासिक और शरियत के तथ्यों को पहचान कर भारत के बहुसंख्य समाज की आराध्या और श्रद्धा केंद्र के साथ ग्रामीण और कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़ “गाय और गौ वंश” के सन्दर्भों में यदि सकारात्मक और सद्भावी निर्णय लेते हैं और गौ वध नहीं करनें की शपथ लेते हैं तो यह ब्रिटिश कालीन विघटन कारी नीतियों के भारत से विदाई का अवसर ही कहलायेगा और भारत में साम्प्रदायिक सौहाद्र और सद्भाव की नई बयार बहायेगा. भारतीय मुसलामानों को यह विचार करना ही होगा कि अंग्रेजों की देन इस गौमांस भक्षण को वे जितनी जल्दी त्याग दें उतना ही उत्तम होगा. दारुल उलूम का ईदुज्जुहा के अवसर पर जारी यह फतवा भारतीय मुसलामानों में गौवंश के प्रति आस्था विश्वास और श्रद्धा जागृत करगा ऐसी आशा और विश्वास

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