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देवपुत्र की जय गाथा: भाग २

सत्यम्
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प्रवीण गुगनानी,47,टैगोर वार्ड, बैतूल म.प्र, प्रधान सम्पादक दैनिक मत मतान्तर, guni.pra@gmail.com 09425002270

देवपुत्र की जय गाथा: भाग २

साहित्य की दुनिया में बाल साहित्य एक बड़ी विलक्षण और विशिष्ट विधा मानी जाती है. बच्चों के साहित्य में उनकी कोमल और नवांकुर भावनाओं, विचारों व उद्वेगों को ध्यान में रखते हुए बड़ी ही विशिष्ट शैली में विचारों की माला में शब्दों को हौले हौले पिरोया जाता है जो कि बड़ा ही मनस्वी और तपस्वी मानस ही कर पाता है. आज यह निर्विवाद सत्य है कि देश में बच्चों की भावनाओं से जुड़ा स्तरीय बाल साहित्य बहुत ही कम प्रकाशित हो रहा है फलस्वरूप बच्चे रीडर कम और व्यूवर अधिक बन गएँ हैं. सूचनात्मक, भावनात्मक और विचारात्मक रूपकों के साथ बच्चों के बालपन, मासूमियत और उनकी सहज जिज्ञासाओं को संतुष्ट करते हुए उन्हें प्रेरणादायी और तथ्यपरक सामग्री प्रकाशित करनें के साथ साथ इस साहित्य से उनका मनोरंजन करना बाल साहित्य का नेसर्गिक उद्देश्य होता है जो कि इस घनघोर व्यावसायिक युग में यदा-कदा ही देखनें को मिलता है. इन सभी मापदंडों पर संतुलन स्थापित करते हुए बच्चों को हास्य रस और अद्भुत रस में रची बसी सामग्री उपलब्ध कराना एक बड़ा ही दुष्कर और दूभर कार्य है जो बच्चों से बड़े ही मनोवैज्ञानिक प्रकार के तादात्म्य बैठालनें पर ही सध पाता है. और यदि इस सम्पूर्ण प्रकार का संतुलन बैठा भी लिया जाए और बच्चों मनोवैज्ञानिक अध्ययन के आधार पर सर्वदा उपयुक्त साहित्य लिख भी लिया जाए तो इसे अव्वल तो प्रकाशित करना ही कठिन है और यदि प्रकाशित कर लिया जाए तो उसे उचित और सहनीय कीमत के संस्करण में प्रस्तुत करना कठिनतर है और इन दोनों दुष्कर कार्यों को कर भी लिया जाए तो इस प्रकार की पत्रिका के सुन्दर, भव्य और आकर्षक रूप में कम कीमत पर प्रकाशन की निरंतरता बना पाना कठिनतम ही नहीं बल्कि असंभव कार्य है. कहना न होगा कि आज देवपुत्र संस्थान ही है जो कि इन सभी मापदंडों पर स्वयं को कठोरता के साथ परीक्षा लेते हुए उतारता है. “लाभ चाहिए नहीं और परिश्रम पूर्वक हानि से बचते चलो” के दुष्कर सिद्धांत पर कार्य करता यह प्रकाशन संस्थान आज कई मायनों में विश्व दुर्लभ संस्थान बन गया है.

आज के युग में बच्चों के लिए पाठ्य सामग्री हेतु चिंतित अभिभावकों और शिक्षकों को स्वाभाविक ही यह पता है कि देवपुत्र एक ऐसी बाल पत्रिका है जो उपरोक्त लिखित बातों और तथ्यों पर पिछले साड़े तीन दशकों से सर्वदा और नितांत सटीक और खरी उतरती चली आ रही है और साथ ही साथ अपनी उत्कृष्टता, भव्यता और प्रामाणिकता में विस्तार भी करती जा रही है. १ दिस. १९८५ से निर्बाध और सतत प्रकाशित हो रही बाल पत्रिका को देवपुत्र संस्थान के पितृ पुरुष श्रीयुत कृष्ण कुमार अष्ठाना की देन माना जाता है, आज भी अष्ठाना जी इस पत्रिका की देख रेख एक शिशु की भांति बड़े ही जतन से करते है फलस्वरूप यह पत्रिका लगभग पौनें चार लाख प्रतियों के मासिक प्रकाशन के साथ देश की सर्वाधिक प्रसारित पत्रिका का सम्मान प्राप्त कर रही है.

पिछले देनों कतिपय राजनैतिक दृष्टिकोण से म.प्र. के राजनीतिज्ञों द्वारा इस पत्रिका के सन्दर्भ में बड़ी ही भ्रामक बातें कही गई और इसकी अनावश्यक और असत्य आलोचना की गई. म.प्र. के प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के नेताओं द्वारा जिन सन्दर्भों और कारणों के आधार पर इस पत्रिका के सन्दर्भ में अनावश्यक वितंडा खड़ा किया गया उनका अध्ययन करनें पर स्वाभाविक ही यह तथ्य सामनें आता है कि इस पत्रिका के विषय में कही गई बाते कितनी निराधार और थोथी हैं. हुआ यह कि केंद्र सरकार द्वारा देश के सभी प्रदेशों को बच्चों में पढनें की आदत व स्वभाव के विकास हेतु पुस्तकों की खरीद के लिए बीस बीस करोड़ रूपये दिए गए. म.प्र. शासन ने इन बीस करोड़ रुपयों में से साड़े तेरह करोड़ रूपये का करार देवपुत्र संस्थान से कर लिया. बड़े ही आश्चर्य जनक और अविश्वसनीय ढंग से देवपुत्र संस्थान ने म.प्र. सरकार के ११०९३४ विद्यालयों को आगामी पंद्रह वर्षों तक दो दो पत्रिका अर्थात २२१००० पत्रिका प्रतिमाह देनें का अनुबंध कर लिया जो कि किसी भी शुद्ध व्यावसायिक संस्थान के लिए आत्मघाती अनुबंध होता. कांग्रेसी नेताओं द्वारा यह आरोप लगाया जा रहा है कि केंद्र सरकार ने राशि पुस्तकों की खरीद के लिए थी जवाब है कि आगामी पंद्रह वर्षों तक प्रति विद्यालय दो प्रति पुस्तक की पहुंचाई जायेगी. आरोप है कि अनुबंध देवपुत्र संस्थान को लाभ पहुँचानें के उद्देश्य से किया है तो जवाब है कि देश-दुनिया से कोई भी बड़े बड़े से प्रकाशन संस्थान आ जाए वह साड़े तेरह करोड़ रूपये में आनें वालें पंद्रह वर्षों तक २२१००० पत्रिका इस दर पर उपलब्ध करानें का कार्य करके बता दे!! आकड़ों को अन्दर से देखें तो सामान्य सी समझ रखनें वाले व्यक्ति को भी सचमुच ही यह अनुबंध देवपुत्र संस्थान का आत्मघाती अनुबन्ध ही समझ में आएगा!!! इस विषय को ज़रा इस प्रकार समझिये कि देवपुत्र संस्थान ने २२१००० पर्त्रिका प्रति माह प्रदाय करनें के लिए साड़े तेरह करोड़ लिए अर्थात एक पत्रिका के लिए वार्षिक चंदे का मूल्य आया मात्र तिरतालीस रूपये प्रति वर्ष यानी अड़तालीस पृष्ठीय चिकनें कागज़ पर चार रंगों में प्रकाशित यह पत्रिका तीन रूपये साठ पैसे में उपलब्ध कराई जायेगी. यहाँ तक तो यह कार्य कठिनतम कार्य ही है कि एक पान या आधी चाय के मूल्य से भी आधे मूल्य पर कोई शोध संस्थान मनोवैज्ञानिक आधार पर लिखी सामग्री से सजी धजी पत्रिका को विद्यालय पहुंचा कर देनें की शर्त पर अनुबंध करें. किन्तु यहाँ पर यह कार्य आपको इसलिए अविश्वसनीय लगेगा और आपका मूंह खुला का खुला और आँखें भौचक्की रह जायेंगी जब आपको यह पता चलेगा कि आधी चाय से कम कीमत पर यानी तीन रूपये साथ पैसे में इस पत्रिका की सप्लाई आनें वालें पंद्रह वर्षों तक इसी दर पर की जानी है. बेहद हैरानी भरे इस अनुबंध के विषय में जो सुनता है वह देवपुत्र संस्थान की प्रशंसा करता है एक कांग्रेस को छोड़कर. देवपुत्र के विरोधियों को पता होना चाहिए कि देश का थोक और खुदरा मूल्य सूचकांक का चरित्र और स्वभाव क्या है? उसका बढ़ता हुआ ग्राफ उनकें दिमाग में रखकर वे विचार करें और जमीनी यथार्थों का अध्ययन करें तो वे पायेंगे कि पिछले एक वर्ष में चार बार अखबारी कागज़ के मूल्यों में सत्रह प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है. देश के परिवहन लागत के सूचकांक में भी डीजल पेट्रोल की बढती कीमतों के कारण कमोबेश इतनी ही वृद्धि हो चुकी है. इस अद्भुत और बेहद प्यारी पत्रिका के आलोचक थोथे, निराधार और तथ्यहीन विरोध को छोड़कर तनिक बैठें और विचार करें कि आखिर आगामी पांच सात वर्षों में जब देश के मूल्य सूचकांक के अनुसार चाय बारह रुपये में मिलनें वाली है और पचास पेज की एक कोरी नोटबुक बीस रूपये की होनें वाली है तब भी और उसके और आठ दस वर्षों बाद तक यह देवपुत्र संस्थान अपनी बाल पत्रिका देवपुत्र का सप्लाई तीन रूपये साठ पैसे में ही करता रहेगा!! इस अनुबंध के आलोचक लकीर पीट रहे राजनेता और राजनैतिक दल करा ले सी बी आई जांच और रद्द करा ले इस अनुबंध को यह आज की दुनिया में आसान हो सकता है क्योंकि यह विध्वंस और विनाश है किन्तु बात तब बनती है जब वे कोई ऐसा संस्थान सामनें लाये और तेज गति से होती मूल्यवृद्धि के इस भीषण दौर में आगामी पंद्रह वर्षों के लिए ऐसी सप्लाई का निर्माण और सृजन कार्य करके तो बताएं!!

पौनें चार लाख पत्रिकाओँ को अपनें बेहद छोटे और सस्ते इन्फ्रास्ट्रक्चर से प्रकाशित करनें वाली यह संस्था अपनी दो लाख प्रतियों को पोस्ट आफिस के माध्यम से भेजती है. आश्चर्य जनक ढंग से पिछले तैतीस वर्षों में एक बार भी इस पत्रिका ने अपनी पत्रिका को पोस्ट तक पहचानें में एक बार भी तीस तारीख पार नहीं की और प्रकाशन जगत में समय पालन का एक अद्भुत रिकार्ड बनाया है. व्यावसायिक जगत में एक निश्चित सांख्यिकी के लेन देन को बिना चुक के संपादित करनें वाली कम्पनी को सिग्मा रेटिंग प्रदान की जाती है. यदि देवपुत्र के प्रकाशन और बिक्री सेवा संपर्क के आंकड़ों का विधिवत आडिट करें तो हम पायेंगे कि यह संस्थान सिग्मा रेटिंग के माप दंडों के अनुसार कार्य कर रहा संस्थान है.

इस आलेख के पाठकों को स्वाभाविक ही यह प्रश्न सता रहा होगा कि आखिर देवपुत्र संस्थान और कृष्ण कुमार अष्ठाना जी के पास ऐसा क्या है कि वे जान बूझकर ऐसा आत्मघाती लगनें वाला अनुबंध कर रहें हैं? इसका जवाब प्रकाशन की दुनियाँ का एक चलन या थम्ब रूल है जिसके अनुसार किसी भी मासिक पत्रिका के १००० सर्कुलेशन पर बीस लोगों का स्टाफ चाहिए होता है. आप सभी को और इस मासूम किन्तु ज्ञानवर्द्धक पत्रिका के अज्ञानी आलोचकों को यह जानकर बेहद आश्चर्य होगा कि पौनें चार लाख के सर्कुलेशन वाली इस पत्रिका के प्रकाशन में लगनें वालें सम्पादक, कम्पोजर, डिजाइनर, कंप्यूटर आपरेटर, ड्राइवर, वेंडर, पैकर, डिस्पेचर, बाबू, चपरासी आदि के स्टाफ में मात्र तेरह लोग कार्य करतें हैं!!! यही वह प्राणशक्ति है जिनसें देवपुत्र लिखी और प्रकाशित की जाती है और यही वह देवदुर्लभ टोली है जिनकें दम पर आनें वालें पंद्रह वर्षों तक का अविश्वसनीय कीमत वाला निष्ठा और आस्था पूर्ण करार इस प्रकाशन संस्थान ने कर लिया है.

प्रश्न यह है कि देवपुत्र बाल पत्रिका में ऐसा क्या है जो इसका विरोध कतिपय राजनेता कर रहें हैं? मूल्य का विषय है नहीं, पत्रिका यह ज्ञान और प्रेरणा वर्द्धक है, आधार इसका शोध जनित है, मुनाफें का गणित इसमें दिखता नहीं है, सामग्री इसमें राष्ट्र वादी रहती है, राष्ट्रीयता इस में कूट कूट कर भरी होती है, फिर आखिर क्या बात है कि इस पत्रिका का विरोध हो रहा है?? जवाब किसी के भी पास नहीं है!! केवल विरोध करनें के लिए विरोध किया और करेंगे यही इस नौनिहाल विरोधी मुहीम का जवाब हो सकता है इसके अतिरिक्त कुछ और नहीं. इस विरोध के पीछे इस देश में पिछले छः दशकों और उसके पूर्व अंग्रेजों के समय से चली आ रही कुत्सित-घृणित मानसिकता को हमें समझना होगा जो भारतीय इतिहास और परम्पराओं के गलत और विकृत रूप को प्रस्तुत करती चली आ रही है. हर गौरवशाली भारतीय मूल के व्यक्तियों और परम्पराओं के योगदान का अवमूल्यन और विदेशी आक्रमण कारियों का महिमा मंडन करनें का जो नेहरूवादी और कम्युनिस्ट लेखकों का दौर इस देश में निर्बाध चला और जिस प्रकार वे प्रभावी और शक्तिशाली हुए हैं; उस दौर में इस प्रकार के राष्ट्रवादी साहित्य और प्रकाशनों का विरोध और दमन करनें के दानवी प्रयास स्वाभाविक ही हैं.

साहित्य की दुनिया में बाल साहित्य एक बड़ी विलक्षण और विशिष्ट विधा मानी जाती है. बच्चों के साहित्य में उनकी कोमल और नवांकुर भावनाओं, विचारों व उद्वेगों को ध्यान में रखते हुए बड़ी ही विशिष्ट शैली में विचारों की माला में शब्दों को हौले हौले पिरोया जाता है जो कि बड़ा ही मनस्वी और तपस्वी मानस ही कर पाता है. आज यह निर्विवाद सत्य है कि देश में बच्चों की भावनाओं से जुड़ा स्तरीय बाल साहित्य बहुत ही कम प्रकाशित हो रहा है फलस्वरूप बच्चे रीडर कम और व्यूवर अधिक बन गएँ हैं. सूचनात्मक, भावनात्मक और विचारात्मक रूपकों के साथ बच्चों के बालपन, मासूमियत और उनकी सहज जिज्ञासाओं को संतुष्ट करते हुए उन्हें प्रेरणादायी और तथ्यपरक सामग्री प्रकाशित करनें के साथ साथ इस साहित्य से उनका मनोरंजन करना बाल साहित्य का नेसर्गिक उद्देश्य होता है जो कि इस घनघोर व्यावसायिक युग में यदा-कदा ही देखनें को मिलता है. इन सभी मापदंडों पर संतुलन स्थापित करते हुए बच्चों को हास्य रस और अद्भुत रस में रची बसी सामग्री उपलब्ध कराना एक बड़ा ही दुष्कर और दूभर कार्य है जो बच्चों से बड़े ही मनोवैज्ञानिक प्रकार के तादात्म्य बैठालनें पर ही सध पाता है. और यदि इस सम्पूर्ण प्रकार का संतुलन बैठा भी लिया जाए और बच्चों मनोवैज्ञानिक अध्ययन के आधार पर सर्वदा उपयुक्त साहित्य लिख भी लिया जाए तो इसे अव्वल तो प्रकाशित करना ही कठिन है और यदि प्रकाशित कर लिया जाए तो उसे उचित और सहनीय कीमत के संस्करण में प्रस्तुत करना कठिनतर है और इन दोनों दुष्कर कार्यों को कर भी लिया जाए तो इस प्रकार की पत्रिका के सुन्दर, भव्य और आकर्षक रूप में कम कीमत पर प्रकाशन की निरंतरता बना पाना कठिनतम ही नहीं बल्कि असंभव कार्य है. कहना न होगा कि आज देवपुत्र संस्थान ही है जो कि इन सभी मापदंडों पर स्वयं को कठोरता के साथ परीक्षा लेते हुए उतारता है. “लाभ चाहिए नहीं और परिश्रम पूर्वक हानि से बचते चलो” के दुष्कर सिद्धांत पर कार्य करता यह प्रकाशन संस्थान आज कई मायनों में विश्व दुर्लभ संस्थान बन गया है.

आज के युग में बच्चों के लिए पाठ्य सामग्री हेतु चिंतित अभिभावकों और शिक्षकों को स्वाभाविक ही यह पता है कि देवपुत्र एक ऐसी बाल पत्रिका है जो उपरोक्त लिखित बातों और तथ्यों पर पिछले साड़े तीन दशकों से सर्वदा और नितांत सटीक और खरी उतरती चली आ रही है और साथ ही साथ अपनी उत्कृष्टता, भव्यता और प्रामाणिकता में विस्तार भी करती जा रही है. १ दिस. १९८५ से निर्बाध और सतत प्रकाशित हो रही बाल पत्रिका को देवपुत्र संस्थान के पितृ पुरुष श्रीयुत कृष्ण कुमार अष्ठाना की देन माना जाता है, आज भी अष्ठाना जी इस पत्रिका की देख रेख एक शिशु की भांति बड़े ही जतन से करते है फलस्वरूप यह पत्रिका लगभग पौनें चार लाख प्रतियों के मासिक प्रकाशन के साथ देश की सर्वाधिक प्रसारित पत्रिका का सम्मान प्राप्त कर रही है.

पिछले देनों कतिपय राजनैतिक दृष्टिकोण से म.प्र. के राजनीतिज्ञों द्वारा इस पत्रिका के सन्दर्भ में बड़ी ही भ्रामक बातें कही गई और इसकी अनावश्यक और असत्य आलोचना की गई. म.प्र. के प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के नेताओं द्वारा जिन सन्दर्भों और कारणों के आधार पर इस पत्रिका के सन्दर्भ में अनावश्यक वितंडा खड़ा किया गया उनका अध्ययन करनें पर स्वाभाविक ही यह तथ्य सामनें आता है कि इस पत्रिका के विषय में कही गई बाते कितनी निराधार और थोथी हैं. हुआ यह कि केंद्र सरकार द्वारा देश के सभी प्रदेशों को बच्चों में पढनें की आदत व स्वभाव के विकास हेतु पुस्तकों की खरीद के लिए बीस बीस करोड़ रूपये दिए गए. म.प्र. शासन ने इन बीस करोड़ रुपयों में से साड़े तेरह करोड़ रूपये का करार देवपुत्र संस्थान से कर लिया. बड़े ही आश्चर्य जनक और अविश्वसनीय ढंग से देवपुत्र संस्थान ने म.प्र. सरकार के ११०९३४ विद्यालयों को आगामी पंद्रह वर्षों तक दो दो पत्रिका अर्थात २२१००० पत्रिका प्रतिमाह देनें का अनुबंध कर लिया जो कि किसी भी शुद्ध व्यावसायिक संस्थान के लिए आत्मघाती अनुबंध होता. कांग्रेसी नेताओं द्वारा यह आरोप लगाया जा रहा है कि केंद्र सरकार ने राशि पुस्तकों की खरीद के लिए थी जवाब है कि आगामी पंद्रह वर्षों तक प्रति विद्यालय दो प्रति पुस्तक की पहुंचाई जायेगी. आरोप है कि अनुबंध देवपुत्र संस्थान को लाभ पहुँचानें के उद्देश्य से किया है तो जवाब है कि देश-दुनिया से कोई भी बड़े बड़े से प्रकाशन संस्थान आ जाए वह साड़े तेरह करोड़ रूपये में आनें वालें पंद्रह वर्षों तक २२१००० पत्रिका इस दर पर उपलब्ध करानें का कार्य करके बता दे!! आकड़ों को अन्दर से देखें तो सामान्य सी समझ रखनें वाले व्यक्ति को भी सचमुच ही यह अनुबंध देवपुत्र संस्थान का आत्मघाती अनुबन्ध ही समझ में आएगा!!! इस विषय को ज़रा इस प्रकार समझिये कि देवपुत्र संस्थान ने २२१००० पर्त्रिका प्रति माह प्रदाय करनें के लिए साड़े तेरह करोड़ लिए अर्थात एक पत्रिका के लिए वार्षिक चंदे का मूल्य आया मात्र तिरतालीस रूपये प्रति वर्ष यानी अड़तालीस पृष्ठीय चिकनें कागज़ पर चार रंगों में प्रकाशित यह पत्रिका तीन रूपये साठ पैसे में उपलब्ध कराई जायेगी. यहाँ तक तो यह कार्य कठिनतम कार्य ही है कि एक पान या आधी चाय के मूल्य से भी आधे मूल्य पर कोई शोध संस्थान मनोवैज्ञानिक आधार पर लिखी सामग्री से सजी धजी पत्रिका को विद्यालय पहुंचा कर देनें की शर्त पर अनुबंध करें. किन्तु यहाँ पर यह कार्य आपको इसलिए अविश्वसनीय लगेगा और आपका मूंह खुला का खुला और आँखें भौचक्की रह जायेंगी जब आपको यह पता चलेगा कि आधी चाय से कम कीमत पर यानी तीन रूपये साथ पैसे में इस पत्रिका की सप्लाई आनें वालें पंद्रह वर्षों तक इसी दर पर की जानी है. बेहद हैरानी भरे इस अनुबंध के विषय में जो सुनता है वह देवपुत्र संस्थान की प्रशंसा करता है एक कांग्रेस को छोड़कर. देवपुत्र के विरोधियों को पता होना चाहिए कि देश का थोक और खुदरा मूल्य सूचकांक का चरित्र और स्वभाव क्या है? उसका बढ़ता हुआ ग्राफ उनकें दिमाग में रखकर वे विचार करें और जमीनी यथार्थों का अध्ययन करें तो वे पायेंगे कि पिछले एक वर्ष में चार बार अखबारी कागज़ के मूल्यों में सत्रह प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है. देश के परिवहन लागत के सूचकांक में भी डीजल पेट्रोल की बढती कीमतों के कारण कमोबेश इतनी ही वृद्धि हो चुकी है. इस अद्भुत और बेहद प्यारी पत्रिका के आलोचक थोथे, निराधार और तथ्यहीन विरोध को छोड़कर तनिक बैठें और विचार करें कि आखिर आगामी पांच सात वर्षों में जब देश के मूल्य सूचकांक के अनुसार चाय बारह रुपये में मिलनें वाली है और पचास पेज की एक कोरी नोटबुक बीस रूपये की होनें वाली है तब भी और उसके और आठ दस वर्षों बाद तक यह देवपुत्र संस्थान अपनी बाल पत्रिका देवपुत्र का सप्लाई तीन रूपये साठ पैसे में ही करता रहेगा!! इस अनुबंध के आलोचक लकीर पीट रहे राजनेता और राजनैतिक दल करा ले सी बी आई जांच और रद्द करा ले इस अनुबंध को यह आज की दुनिया में आसान हो सकता है क्योंकि यह विध्वंस और विनाश है किन्तु बात तब बनती है जब वे कोई ऐसा संस्थान सामनें लाये और तेज गति से होती मूल्यवृद्धि के इस भीषण दौर में आगामी पंद्रह वर्षों के लिए ऐसी सप्लाई का निर्माण और सृजन कार्य करके तो बताएं!!

पौनें चार लाख पत्रिकाओँ को अपनें बेहद छोटे और सस्ते इन्फ्रास्ट्रक्चर से प्रकाशित करनें वाली यह संस्था अपनी दो लाख प्रतियों को पोस्ट आफिस के माध्यम से भेजती है. आश्चर्य जनक ढंग से पिछले तैतीस वर्षों में एक बार भी इस पत्रिका ने अपनी पत्रिका को पोस्ट तक पहचानें में एक बार भी तीस तारीख पार नहीं की और प्रकाशन जगत में समय पालन का एक अद्भुत रिकार्ड बनाया है. व्यावसायिक जगत में एक निश्चित सांख्यिकी के लेन देन को बिना चुक के संपादित करनें वाली कम्पनी को सिग्मा रेटिंग प्रदान की जाती है. यदि देवपुत्र के प्रकाशन और बिक्री सेवा संपर्क के आंकड़ों का विधिवत आडिट करें तो हम पायेंगे कि यह संस्थान सिग्मा रेटिंग के माप दंडों के अनुसार कार्य कर रहा संस्थान है.

इस आलेख के पाठकों को स्वाभाविक ही यह प्रश्न सता रहा होगा कि आखिर देवपुत्र संस्थान और कृष्ण कुमार अष्ठाना जी के पास ऐसा क्या है कि वे जान बूझकर ऐसा आत्मघाती लगनें वाला अनुबंध कर रहें हैं? इसका जवाब प्रकाशन की दुनियाँ का एक चलन या थम्ब रूल है जिसके अनुसार किसी भी मासिक पत्रिका के १००० सर्कुलेशन पर बीस लोगों का स्टाफ चाहिए होता है. आप सभी को और इस मासूम किन्तु ज्ञानवर्द्धक पत्रिका के अज्ञानी आलोचकों को यह जानकर बेहद आश्चर्य होगा कि पौनें चार लाख के सर्कुलेशन वाली इस पत्रिका के प्रकाशन में लगनें वालें सम्पादक, कम्पोजर, डिजाइनर, कंप्यूटर आपरेटर, ड्राइवर, वेंडर, पैकर, डिस्पेचर, बाबू, चपरासी आदि के स्टाफ में मात्र तेरह लोग कार्य करतें हैं!!! यही वह प्राणशक्ति है जिनसें देवपुत्र लिखी और प्रकाशित की जाती है और यही वह देवदुर्लभ टोली है जिनकें दम पर आनें वालें पंद्रह वर्षों तक का अविश्वसनीय कीमत वाला निष्ठा और आस्था पूर्ण करार इस प्रकाशन संस्थान ने कर लिया है.

प्रश्न यह है कि देवपुत्र बाल पत्रिका में ऐसा क्या है जो इसका विरोध कतिपय राजनेता कर रहें हैं? मूल्य का विषय है नहीं, पत्रिका यह ज्ञान और प्रेरणा वर्द्धक है, आधार इसका शोध जनित है, मुनाफें का गणित इसमें दिखता नहीं है, सामग्री इसमें राष्ट्र वादी रहती है, राष्ट्रीयता इस में कूट कूट कर भरी होती है, फिर आखिर क्या बात है कि इस पत्रिका का विरोध हो रहा है?? जवाब किसी के भी पास नहीं है!! केवल विरोध करनें के लिए विरोध किया और करेंगे यही इस नौनिहाल विरोधी मुहीम का जवाब हो सकता है इसके अतिरिक्त कुछ और नहीं. इस विरोध के पीछे इस देश में पिछले छः दशकों और उसके पूर्व अंग्रेजों के समय से चली आ रही कुत्सित-घृणित मानसिकता को हमें समझना होगा जो भारतीय इतिहास और परम्पराओं के गलत और विकृत रूप को प्रस्तुत करती चली आ रही है. हर गौरवशाली भारतीय मूल के व्यक्तियों और परम्पराओं के योगदान का अवमूल्यन और विदेशी आक्रमण कारियों का महिमा मंडन करनें का जो नेहरूवादी और कम्युनिस्ट लेखकों का दौर इस देश में निर्बाध चला और जिस प्रकार वे प्रभावी और शक्तिशाली हुए हैं; उस दौर में इस प्रकार के राष्ट्रवादी साहित्य और प्रकाशनों का विरोध और दमन करनें के दानवी प्रयास स्वाभाविक ही हैं.

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