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बरगद पर जा बैठी नींद

सत्यम्
सत्यम्
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“बरगद पर जा बैठी नींद”

नींदे उचटती उखड़ती हुई

नींदों में रोज आता अत्याचार.

नींदों में प्रतिदिन रहतें हैं

अब

पत्थर, कांटे, उलझनें, आशंकाएं.

विवर्ण और टूटते बनते

अंग भंग सपनें

जैसे बढ़ चलतें हैं बाद आधी रात को

वहां जहां मृत्युदंड की अभिशप्त

कुछ शिलाएं पड़ी हुई हैं और बूढ़ा बरगद जिन्हें

समेटें होता था अपने विराट घनत्व में.

नींद के टुकड़े टंगे दिखते थे बड़ी बड़ी भयावह शाखाओं पर

बरगद उन नींदों को लील लेता था यदा कदा

अपनी विक्षिप्त अपूर्ण महत्वकांक्षाओं के घेरे को

आकार देता तो कभी निराकार और कभी अदृश्य होनें को उद्धृत

बरगद नींदों के साथ नहीं बैठा पाता था तादात्म्य.

बड़े बड़े पत्तों के बीच से होकर सरक जाती थी

कुछ आवाजें, कुछ  मायावी स्वर

अकिंचन ही हो रहते थे बहुत से स्वर तब भी

जो बरगद की लटाओं से लिपट जातें थे

और

करवा लेते थे उसकी विशालता और घनत्व से अपना यज्ञोपवीत.

सोये हुए किन्तु अनहद आकुल सपनों को

बरगदों के यज्ञोपवीत भी नहीं कर पायेंगे युतिबद्ध

उनकी विवशताओं पर प्रतिबद्धताओं का दबाव

विमर्श रत और सपनों को डूबा-सराबोर ही रखता था

और

लिए साथ बैठा रहता था गाँव के मासूम ख़त्म होते छोर पर.

कुछ संघर्षरत शब्दसमूह, कुछ मात्राएँ

और

कुछ व्याकरण के अपेक्षित आचरणों की अपेक्षाएं

अतृप्त कामनाओं में परिवर्तित होनें को होती थी

तब

कुछ अंग भंग सपनें

निर्ममता से ला पटकते थे गहरी होती नींद को

उलझी बरगदी लटाओं के मध्य.

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