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बेजान गुड़ियाँ ॥

khwahishein yeh bhi hain
khwahishein yeh bhi hain
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बेजान गुड़ियाँ ॥
अपने आस -पास
इधर-उधर ,आधी-अधूरी दुनियां में
चलती-फिरती
ये- देहरूपा आकृतियां या कहूँ परछाईयां
देखती हूँ
तब ,कभी-कभी
मुझे ! ऐसा लगता है
मुझे भी
मेरे -अपने
इस मुर्दाघर (पागल खाना ) में छोड़ गये
जो ,शायद ! कभी
मुझे भी,लेने आये ;
बिल्कुल उन्हीं के जैसे
पिछले- दिनों
कई देहरूपा या कहूँ टूटी हुई कश्तियाँ
बेजान गुड़ियाँ
यहाँ से बाहर गयी
कहाँ ?
पता नहीं ! घर से आयी थी,घर ही गयी होगी
मैं !सोचती हूँ ,आता-जाता
कोई देवदूत ,मेरी बात सुन ले
और मेरे-अपनों तक
मेरी बात पहुंचा दे कि
वे ,उसी के जैसे
पिछले-दिनों ,जो देहरूपा
यहाँ से बाहर गई
मुझे भी ,ले जाये
आज-कल आगरा की इस वादी में
मोगरे के फूल,पेड़ पे खिले
बहुत उदास लगते हैं ॥
सीमा सिंह ॥॥
पागलखाने से एक पगली की डायरी की कतरने जोड़-जोड़ कर ये कविता बनी ॥

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