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देश की चूलें हिला रहा है धार्मिक भ्रष्टाचार

प्रेम रस - जागरण जंकशन
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आज जहाँ सामाजिक भ्रष्टाचार देश को ज़हरीले सांप की तरह डस रहा है वहीँ धार्मिक भ्रष्टाचार भी देश की बुनियाद की चूलें हिलाने का काम कर रहा है। मैं हमेशा से ही मानता रहा हूँ कि भ्रष्टाचार हमारे अन्दर से शुरू होता है. इसके फलने-फूलने में सबसे अधिक सहायक हम स्वयं ही होते हैं बल्कि कहीं ना कहीं हम स्वयं इसका हिस्सा होते हैं। आज सभी चाहते हैं कि भ्रष्टाचार समाप्त हो जाए, लेकिन कोई भी यह नहीं चाहता कि उसके अन्दर का भ्रष्टाचार समाप्त हो जाए।

धार्मिक भ्रष्टाचार भी आम जनता के कारण ही फलता-फूलता है। आज इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा के ज़माने में हर इंसान पैसा कमाने के लिए रात-दिन एक कर देता है, हर इक दूसरों से आगे निकल जाना चाहता है। परन्तु ऐसे समय में भी अपने खून-पसीने से कमाए पैसों को मंदिर, मस्जिद, आश्रमों और दरगाहों में बर्बाद कर देता है। बर्बाद इसलिए कह रहा हूँ, कि ऐसे संस्थानों के कर्ता-धर्ता अधिकतर मामलों में उन पैसों का प्रयोग समाज के उद्धार की जगह स्वयं का उद्धार करने में करते हैं। आज के दौर में धर्म भी एक तरह का नशा हो गया है, या यह कहें कि बना दिया गया है। इस युग में भी लोग बिना सोचे-समझे धार्मिक गुरुओं पर आँख मूँद कर विश्वास करते हैं, जबकि उनके अनैतिक कृत्य खुले-आम नज़र आते हैं। जनता-दिन प्रतिदिन गरीब होती जा रही है और धर्म के यह तथा-कथित सेवक दिन-प्रतिदिन अमीर होते जा रहे हैं। रोजाना धार्मिक स्थलों पर करोडो का चढ़ावा  चढ़ाया जाता है और बेशर्मी की हद यह है कि इन धार्मिक स्थलों द्वारा जोर-शोर से चढ़ावे में मिलने वाली अकूत दौलत का गुडगान कर-करके दुनिया को बताया जाता है। 
गौर करने की बात है कि अगर दान अथवा चढावे का यह पैसा गरीबों के उत्थान, बीमारों के इलाज अथवा अनाथ बच्चों के पोषण तथा शिक्षा जैसी जगह में खर्च हो तो देश और समाज का कितना उद्धार हो सकता है। बल्कि सही मायनों में यही पुन्य की प्राप्ति और पैसे का सदुपयोग है, अन्यथा इस तरह पैसों को बर्बाद करके पुन्य की खुशफहमी में जीने के सिवा कुछ भी हासिल नहीं होगा।
धर्म की आड़ में एक और धंधा जोरो पर है, आप इन संस्थानों को  कितना भी दान दीजिए और उसके बदले तीन-चार गुना अधिक की रसीद आपको मिल जाएगी। ऐसा इसलिए क्योंकि ऐसे संस्थानों से कोई कर वसूला नहीं जाता, बल्कि दान देने वालों को भी आयकर में छूट दी जाती है। डेढ़ लाख रूपये तक सालाना कमाने वाले आम नागरिकों पर तो सरकार टेक्स की भरमार कर देती है परन्तु करोड़ों कमाने वाले इन संस्थानों पर कोई टेक्स नहीं?
गरीब जनता को बीच मंझदार में छोड़ देने वाली सरकार इनके आगे-पीछे घूमती दिखाई देती है। करोड़ों की सरकारी ज़मीन ऐसे संस्थानों को कोडियों के दामों दे दी जाती है, जबकि अनाथालयों के लिए जगह मांगने वाले संस्थान, सरकारी कार्यालयों के चक्कर लगा-लगा कर थक जाते हैं। बल्कि कई राज्यों की सरकारों ने अनाथालयों की ज़मीन ऐसे संस्थानों को बाँट रखी है।
आज देश में गरीब के लिए स्कूल तथा अस्पतालों की संख्या गिनी जा सकती है जबकि धर्मस्थलों की संख्या अनगिनत है। नैतिकता का ढोल पीटने वाले धार्मिक संस्थान को जगह-जगह सार्वजानिक ज़मीन पर कब्ज़ा जमाए हुए देखा जा सकता है। कोई सरकार इन तथाकथित धार्मिक स्थलों के खिलाफ कुछ नहीं करती। हद तो तब होती है कि अगर सरकार ऐसी अवैध जगहों को ढहाने का काम करती भी है तो आम जनता ही सरकार के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन करने लगती है और सरकार भी वोट बैंक के लालच में इनके आगे झुक जाती है। यह कैसे धर्म हैं, जहाँ ईश्वर अवैध कब्ज़ा करके बनाए गए धार्मिक स्थल पर पूजा करने वालों से खुश होता है? क्या धर्म अनैतिक हो सकता है? आखिर इस दिखावे के साथ कब तक जीते रहेंगे?

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