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वह भी तो कभी लड़की ही थी !

मैं-- मालिन मन-बगिया की
मैं-- मालिन मन-बगिया की
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पैदा होते ही माँ का
आंसुओं से भीगा मैंने
देखा चेहरा
खुद को घूरती देखीं
कई जोड़ी आँखें
अब पहचानती हूँ पर
उस समय तो उन्हें न पायी पहचान
बस टुकुर-टुकुर ताकती रही
मैं अनजान
शायद माँ के दुःख को भी न समझ पाती
यदि तब दादी ने आकर
लड़की जनने पर
उन्हें खरी-खोटी न सुनाई होती
ग्लानि से भर उठी मैं उसी क्षण
जानकर यह कि
मैं ही हूँ माँ के आंसुओं का कारण
आखिर कुसूर था उस जननी का क्या ?
शायद यह कि
गर्भ में ही मुझे क्यूँ न मार दिया !
लेकिन कैसे वो मुझे मारने देती
आखिर वह भी तो कभी
लड़की ही थी !

— प्रियंका त्रिपाठी ‘दीक्षा’

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