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~~~~~~ चादर की सिलवटें ~~~~~~

मैं-- मालिन मन-बगिया की
मैं-- मालिन मन-बगिया की
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बड़े सवेरे उठने पर
गनती हूँ भोर में पड़ी
चादर की सिलवटें
पता तब चलता है कि
कितनी करवटें बदली हैं मैंने
अब सोना क्या है !
क्या जगना है !
बस दिन-रैन
बिन मदिरा, बिन भांग के
खुमार में उनके ‘शब्दों’ के
डूबी सोचती हूँ
फागुन की कौन तिथि होगी ‘रंगभरी’ ?
बरसों बाद
अबकी होली खेलूंगी मैं
रंग चुकी जो उनके रंग में
ओढ़े घूम रही हूँ यह
चटख रंगों से भीगा
‘अनुराग-आवरण’ !
गेहूं की बालियों से सजे खलिहान में
अपने नर संग मादा तितर
मुझे बड़ा बिराती है
संभल-संभलकर गुजरती हूँ
जब टेढ़े-पतले मेड़ों से मैं
मोरनी भी मोर को टेर लगाती है
सहती हूँ सब
बस यह सोचकर मैं कि
‘वे’ आयेंगे तो मैं भी कितना
इठलाउंगी-इतराउंगी
कभी मुस्कराउंगी
कभी शरमाउंगी
एक-एक को ‘उनसे’ मिलवाउंगी !
— प्रियंका त्रिपाठी ‘दीक्षा’

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