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दौर तरक्की का

मैं-- मालिन मन-बगिया की
मैं-- मालिन मन-बगिया की
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भागादौड़ी के इस दौर में
मैं न चाहकर भी
तरक्की के पीछे भाग रहा
चाहता हूँ सुस्ता लूँ ज़रा
पर इसके लिए समय कहाँ ?
डर है की कहीं
अनदेखी-अंजानी-अस्थूल तरक्की
निकल न जाए
मुझसे मीलों आगे
या मुझसे पहले कोई
पूंजीपति उसे ज़ब्त न कर ले
वाकई यह उसका कालाजादू ही है
जो मेरी खुली आँखें भी
साथ दौड़ रहे अपनों को
नहीं पहचान पा रहीं
आपस में एक-दूसरे से आगे निकलने की
ओह ! यह कैसी अंधी दौड़ है लगी?
अब मैं थक गया हूँ
मैं तनिक ठहरना चाहता हूँ
बिन नींद की गोली के सोना चाहता हूँ
माँ ! तुम कहाँ हो माँ !
मुझे अपनी गोद में सुलाकर
मीठी लोरी सुनाओ ना
नींदरवन से नींदिया को बुलाओ ना !!

— प्रियंका त्रिपाठी ‘दीक्षा’

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