मैं-- मालिन मन-बगिया की
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जूझ रहा हूँ मैं खुद से
अपने वजूद को पाने के लिए
जिसकी अबतक मुझे कोई ज़रूरत न हुई
पर अब हर किसी से लड़ पड़ता हूँ मैं
एक ज़द्दोज़हद है खुद को समझने की
स्व को तलाशने की
न इस पार न उस पार
बस त्रिशंकु-सा लटका हुआ हूँ मध्य में
तितली संग कभी उड़ता हूँ मैं
पहुँच जाता हूँ सितारों के घर
अभी चाँद से पूछता ही हूँ कुसलक्षेम क़ि
पतझड़ सा बिखर जाता हूँ अगले ही क्षण
स्वप्निल नीले नभ से गिरना
वास्तविकता के कठोर धरातल पर याद दिलाता है
काफी कुछ
जो बन चूका है मेरा बीता कल
प्रतीक्षारत हूँ मैं
कब बीतेगा यह बेचैनी और उलझनों का दौर
कब जीवंत होगा सपनों का शहर ?
— दिक्षा त्रिपाठी
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