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कहा जाता है कि खेल को हमें खेल की तरह लेना चाहिए, युद्ध की तरह नहीं | खेलों के विषय में यह भी स्पष्ट है कि या तो इसमें हार होगी या फिर जीत | परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है | जब टीम इंडिया विश्वकप जीतती है तो उसे लोग पलकों पर बिठा लेते हैं | हमें अपने खिलाड़िओं पर गर्व होता है | हर एक खिलाड़ी के ऊपर पैसों के साथ ही शुभकामनाओं की बरसात होती है | परन्तु वही खिलाड़ी जब किसी मैच में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते और कुछ मैच हार जाते हैं तो हम उन्हें नाकाबिल दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते ; हर मंच से उनको हतोत्साहित करने का भरसक प्रयास किया जाता है |
यहाँ मैं यह नहीं समझ पाती कि क्या वास्तव में वे खिलाड़ी हारना चाहते हैं ? क्या वह अपनी हार पर जश्न मनाते हैं ?
खुद को उनके स्थान पर रखकर सोचती हूँ तो लगता है कि कोई भी व्यक्ति हमेशा अपने विजय की ही कामना करता है | पराजय की परिस्थितियों में वह मानसिक रूप से विचलित हो जाता है | जीत तो हर किसी को स्वीकार होती है , पर हारने के बाद खुद को संयमित/ संतुलित रख पाने वाले सचमुच ‘बहादुर’ कहलाने के योग्य हैं |
अभी हाल ही में टीम इंडिया के लचर प्रदर्शन को देखकर मेरा मन आहत तो हुआ, परन्तु उससे भी कहीं ज्यादा मुझे धौनी जैसे सफल और सुलझे कप्तान के साथ-साथ एक धुरंधर खिलाड़ी पर उठते सवालों ने विचारमग्न कर दिया | उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए भी मैं खुद से सवाल करने लग जाती हूँ : क्या टीम की मौजूदा हालात के लिए सचमुच धौनी ही जिम्मेदार हैं ? क्या अब उन्हें कप्तानी छोड़ देनी चाहिए ? और क्या जो नया कप्तान होगा वह प्रत्येक मैच में टीम इंडिया की जीत की गारंटी होगा ?
ये तो सिर्फ प्रश्न हैं , जिनका उत्तर मेरे साथ-साथ आपको भी ढूंढना है |
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