मैं-- मालिन मन-बगिया की
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सुन्दर हो, सजीले हो
बिलकुल हट के क्या ग़जब लग रहे हो
ज़्यादा कुछ मालुम नहीं तुम्हारे विषय में
पर फिर भी
तुम्हें पाने को मन मचल रहा
तुम्हें अपनाने को जी चाहता है
न मालूम तुममें
किसी नदी-तीरे के तरबूज का अर्क है
या कि आम के घने बगीचे में
हठपूर्वक उगी इमली की खटास
क्या तुम गले में उतरकर
कराओगे संतुष्ट-मधुर अहसास
अथवा च्विंगम-सा श्वांस-नली में चिपक
ले लोगे किसी की जान
यह तो पता लगेगा
तुम्हें जिह्वा पर रखने के बाद
पर अभी तो
हर कोई झुकेगा तुमपर
शायद मैं भी !
न ! न ! मैं नहीं
क्योंकि मुझे पता है मेरी आवश्यकता
और वह
यह तुम्हारा दर्शनीय ‘ रैपर ‘ नहीं ||
— ‘ दीक्षा ‘
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