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ज़िन्दगी…(कुछ पंक्तियाँ ह्रदय की गहराईयों से)

मैं-- मालिन मन-बगिया की
मैं-- मालिन मन-बगिया की
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(i)
ज़िन्दगी रोटी की जंग है..
है वर्चस्व जहाँ वहीँ जलन है..
बड़े होने की चाह में
उन्मुक्तता गुम हो गयी कहीं ..
स्वेद टपकता रहा
सांस उखाड़ने लगी..
पाँव में फफोले पड़ते गए
और हम भागते रहे..
सोचा एक मंज़िल मिले
दौड़ ख़त्म हो जहाँ
लोग वापस मुड़ें
हम विश्राम कर लें वहीँ
पर नहीं !
नहीं ! नहीं ! नहीं !
यह मुमकिन नहीं…
जीवन यदि राह हो तो
उसका दूसरा छोर भी हो
कि पहुंचें हम वहाँ
तो मिले एक मंजिल खड़ी
भले झोपड़ीनुमा ही सही..
हम दो पल रुकें सुस्ता लें ज़रा..
वहाँ चार प्राणी मिलें..
हम संग में खिलखिला लें ज़रा…
फिर हम उठें उसी राह
वापस घर को चलें…
पर जीवन यदि ‘राह’ हो तो न !
(ii)
जो कहते हैं ज़िन्दगी सफर है एक
दिलासाओं में जीने की आदत है उन्हें
हैं बने-बनाये बुद्धिजीवी
अथवा बड़बोले हैं सब
वह सफर ही क्यों जिसका अंत मौत हो सदा ?
कैसी प्रतियोगिता है ये
जिसका अंत पहले से है पता
जब वास्तव में कुछ हासिल होना ही नहीं
फिर क्यों यह गला-काट प्रतिष्पर्धा ?
यह प्रतिद्वंद्विता ?
कैसा आतंक ?
क्या वर्चस्व ?
दादागिरी किस काम की …?

–प्रियंका त्रिपाठी ‘दीक्षा’

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