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इतिहास की झूठी तलवारों के सहारे राजनैतिक एवं सामाजिक षड्यन्त्रों के ख़िलाफ़ देश हित में बोलना ग़ुनाह है तो हाँ मैं बाग़ी हूँ ….
सुलगते सामाजिक बारूद के ढेर पर आरक्षण के खात्मे का समतामूलक चतुर्यामी फार्मूला
Prof(Dr.)DP Sharma
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हिंदुस्तान में जातीय एकता का सदियों पुराना सौहार्दपूर्ण ताना बाना आज एक ऐसे मोड पर जा पहुंचा है जहाँ प्रेम एवं भाईचारे के सदियों पुराने पवित्र रिश्ते दरकने लगे हैं / राजनीति, लालच एवं सामाजिक न्याय के विकृत खेल ने इसे भदरंग बना दिया है जिसकी धुंध में हम किसे अपना कहें, किसे पराया, किस पर विश्वास करें एवं किस पर नहीं, किसके साथ महफूज महसूस करें किसके साथ नहीं? ये सारा सामाजिक पशमंजर आज शक एवं बुनियादी चरमराहट के मुहाने पर पहुँच गया है / सामाजिक न्याय, समानता, शोषण के विरुद्ध बाणों की आपाधापी में आज ये कहना मुश्किल हो गया है कि सच क्या है, और झूठ किस दिशा में जा रहा है? राजनैतिक द्वंद्व की जातिमूलक धूल में सब कुछ भविष्य की अंधकारमय दिशा में ऐसे बढ़ता चला जा रहा है जहाँ से शांति, सौहार्द, भाईचारे एवं अमन के सारे रास्ते दिखना लगभग धूमिल होते जा रहे हैं/ सामाजिक न्याय की समानता मूलक अवधारणा के लिए जिस आरक्षण की व्यवस्था की थी उसको पाने वालों एवं वंचित के बीच आज जो खाई नजर आ रही है वो देश की एकता, अखण्डता एवं लोकतंत्र के भविष्य के लिए शुभसूचक नहीं है / महावीर एवम महात्मा के देश में आये दिन सामाजिक न्याय, आरक्षण के समर्थन एवं विरोध में बंद तथा जातीय वैमनष्य देश की सैकड़ों सालों की शांति परम्परा को नष्ट भ्रस्ट कर रहा है / ये सच है और न्याय संगत भी कि आरक्षण की समय समय पर समीक्षा होनी चाहिए/ यही बात संविधानविद भीमराव आम्बेडकर ने संविधानसभा की बैठक में भी कही थी और आरक्षण की व्यवस्था प्रथम बार सिर्फ १० वर्ष के लिए लागू की थी / लेकिन ये कालांतर में सुरसा के मुंह की तरह फैलती गयी/अभी हाल में केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान का ये बयान कितना संवेदनशील है कि “सुप्रीम कोर्ट ने दलितों को उत्पीड़न से बचाने वाले हथियार ” यानी “अनुसूचित जाति /जनजाति उत्पीड़न निरोधक कानून 1989″ को अपने फैसले से भोंथरा कर दिया/ इस कथन के यहाँ कई मायने हैं/ क्या वाकई इस हथियार का उपयोग शोषण के विरुद्ध हथियार के रूप में हो रहा है या इसके विपरीत अन्यथा भी ? इसी अन्यथा को ही तो दृश्टिगत रखते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने नवीन व्यवस्था दी है कि इस ” शोषण के विरुद्ध कानून ” का हथियार के रूप में इस्तेमाल ” निर्दोष को सजा ” देने के लिए नहीं होना चाहिए क्योंकि यह न्याय की मूलभूत अवधारणा के खिलाफ है /
ब्रिटिश शासन से आजाद होने के बाद भारत के संविधान निर्माताओं ने समाज के सभी वर्गों के लिए ‘समान अवसर, समान अधिकार एवं अधिकार संरक्षण’ के लिए जो संवैधानिक व्यवस्थाएँ की थीं वे आजादी के बाद की तत्कालीन परिस्थितियों में सामाजिक न्याय के लिए उचित भी थीं एवं न्याय संगत भी / परन्तु ये व्यवस्थाएँ अल्पकालिक थीं, कारण कि कोई भी तंत्र, व्यवस्था, कानून चिरकाल के लिए नहीं हो सकता अर्थात समय समय पर इन कानूनों, तंत्रों एवं व्यवस्थाओं की समीक्षा इसलिए कर लेनी चाहिए ताकि उनके समकालीन महत्व एवं प्रभावी प्रासंगिकता को जांचा एवं परखा जा सके/ इसी को ध्यान में रखते हुए संवैधानिक प्रावधानों, कानूनों एवं जनतंत्र के निर्णयों की समय समय पर काल एवं परिस्थितियों के अनुसार पुनर्समीक्षा एवं व्याख्या के लिए कुछ शक्तियां संसद, न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालय के पास रखी गयीं ताकि समय समय इनकी आवश्यकता एवम प्रभाव को जांचा एवं परखा जा सके /
इसी अधिकार का उपयोग अभी हाल में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनुसूचित जाति / जनजाति उत्पीड़न निरोधक कानून 1989 में आंशिक एवं तार्किक संशोधन के रूप किया / परन्तु आज इन संवैधानिक तथ्यों एवं सत्यों की परख एवं व्याख्या सिर्फ तोड़ फोड़ वाली भीड़ करेगी ये बात तो संविधान निर्माताओं ने भी कभी नहीं सोची होगी / उन्होंने कभी नहीं सोचा होगा कि सामाजिक न्याय के ये तार्किक एवं अति संवेदनशील बीज कालांतर में कुतार्किक होकर देश की शांत फिजां में असमानता एवं अन्याय का एक नवीन जहर घोल देंगे /
ये भी सच है कि अनुसूचित जाति/जनजाति उत्पीड़न निरोधक कानून 1989 की तत्कालीन परिस्थितियों जरुरत थी, आज भी है और कुछ वक्त के लिए अभी और रहेगी भी, जब तक कि जातीय उत्पीड़नों के पुराने रिवाजों एवं चिन्हों का पूरी तरह से उन्मूलन नहीं हो जाता / परन्तु आज ये भी सच है कि कुछ हद तक इस कानून का दुरूपयोग भी हुआ जिसके कारण सामाजिक न्याय की मूल भावना आहत हुई / आज के हालात पर यदि विहंगम नजर डाली जाये तो लोकतान्त्रिक सरकारें सामाजिक न्याय के साथ साथ वोटों के जाति आधारीय गणित से चलती प्रतीत होतीं हैं / इसलिए ये राजनैतिक पार्टियां ऐसी कोई पहल करने से हिचकिचातीं हैं जिनसे उनके वोट बैंक की गणित ख़राब हो / ऐसे हालातों में न्याय व्यवस्था की मूल भावना ” निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए” कुछ हद तक क्षतिग्रस्त भी हुयी है / आखिर निर्दोष के संरक्षण के लिए भी तो किसी को आगे आना चाहिए क्योंकि न्याय की नज़रों में हर इंसान बराबर है/ इसी भावना को दृष्टिगत रखते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने तत्थ्य एवं सत्य दोनों को ध्यान में रखते हुए उक्त कानून की मूल भावना को छेड़े बिना आंशिक संशोधन की व्यवस्था का निर्णय दिया/ देश की न्याय व्यवस्था एवं न्यायालय का सम्मान करते हुए उचित रहता कि सभी वर्गों के लोग इस निर्णय का उचित सम्मान करते / और फिर भी यदि कुछ असहमति रह जाती तो संवैधानिक तरीके से सरकार, संसद एवं न्यायालय को पुनर्विचार के लिए अपील करते / निश्चित ही रास्ता निकलता आंदोलन के पहले भी और बाद भी / ध्यान रहे कि अनावश्यक दबाव की राजनीति न्यायालयों के स्वतंत्र निर्णयों की मूल भावना के खिलाफ है / न्यायालय सिर्फ तथ्य, सत्य एवं सबूतों के आधार पर फैसला सुनाते हैं न कि भीड़ एवं बंद के आधार पर / ज्ञात रहे कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति उत्पीड़न निरोधक कानून 1989 के तहत दायर एक तिहाई मामले देश के विभिन्न न्यायालयों ने ख़ारिज कर दिए थे इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को ये नवीन व्यवस्था देनी पड़ी और लोगों ने राजनैतिक फायदे के लिए इसको गलत तरीके से जनता के सामने रखा जिससे न्यायालय की निष्पक्षता पर सवाल उठे जो कि गलत दिशा में गए/ इनसे बचा जा सकता था /
यदि संवैधानिक अधिकारों एवं न्यायालयों के पूर्व निर्णयों पर नजर डालें तो “सामाजिक न्याय एवं समानता” भारतीय संविधान के दो आधार भूत स्तम्भ हैं जो सभी जाति धर्म एवं समुदाय के लोगों को गरिमा पूर्ण जीवन जीने एवं देश की मुख्य धारा में सहयोग कर आगे बढ़ने के सामान अवसर एवं अधिकार प्रदान करते हैं / सामाजिक न्याय, न्याय का ही तो एक अभिन्न अंग है अर्थात न्याय यदि जाति है तो सामाजिक न्याय एक उपजाति / संविधान की प्रस्तावना एवं अनुच्छेद 38 में जिस सामाजिक न्याय की परिकल्पना की गयी है वह मानव गरिमा के साथ जीने के अर्थपूर्ण अधिकार से जुडी हुयी है / निष्कर्षतः सामाजिक न्याय, समाज के कमजोर वर्ग की पीड़ा, व्यथा, एवं हीनता को मिटाने तथा प्रत्येक व्यक्ति को मानवीय गरिमा के साथ जीवन जीने का अवसर प्रदान करने वाली एक गतिशील प्रक्रिया है “/ ये विचार हैं उच्चतम न्यायलय के न्यायाधीश न्यायमूर्ती के रामास्वामी, न्यायमूर्ति बी एल हंसारिया एवं न्यायमूर्ति एस बी मजूमदार के जो उन्होंने ” एयर इंडिया स्टटूटोरी कॉर्प बनाम यूनाइटेड लेबर यूनियन ( एआईआर १९९७ एस.सी ६४५ ) के मामले में अभिव्यक्त किये थे /
परन्तु यहाँ पर हमें ये भी समझना होगा कि यदि कोई व्यक्ति मजदूर है तो उसकी मजदूरी के अधिकार का संरक्षण मानवीय गरिमा के मूलभूत सिद्धांत के अनुसार होना ही चाहिए/ यही बात संयुक्त राष्ट्र की स्वतंत्र एजेंसी अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा मजदूरों के लिए बनाये गए अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन के सेक्शन 111 में भी कही गयी है / यहाँ ये भी समझना होगा कि मजदूर के लिए मजदूरी एक अधिकार है तो उसको हुनरवान बनाना उसके लिए सामाजिक न्याय है / ये दोनों मजदूर के स्वयं के निर्णय पर आधारित हुए भी कल्याणकारी सरकारों को चाहिए कि वे इसकी समुचित व्यवस्था करें / परन्तु इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि बिना हुनर एवं पात्रता के यदि किसी को कुशल मजदूर बना दिया जाये तो कुशलतावान व्यक्ति के सामाजिक न्याय के साथ कुठाराघात होगा/ यही बात संयुक्त राष्ट्र की स्वतंत्र एजेंसी अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने अपने ” The Indigenous and Tribal Peoples Convention, 1989 (No.169) की जगह लेने वाले नवीन Indigenous and Tribal Populations Convention, 1957 (No.107) को लागू कर कही है / इस कन्वेंशन के अनुसार दुनिया के जनजाति वर्ग के लोगों को ऐसे हर निर्णय में भागीदार बनाया जाये जिनमें उनका अपना सम्मान, संस्कृति एवं अन्य परंपरागत जीवन जीने के तरीके प्रभावित होते हों जैसे उनसे जुडी अथवा प्रभावित करने वाली योजनाओं के निर्णयों में उनसे परामर्श करना, भागीदारी सुनिश्चित करना, जमीन का अधिकार, रोजगार एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा, परंपरागत कानून, परंपरागत संस्थाओं एवं सीमा पार सहयोग आदि शामिल हैं / इस कन्वेंशन में भी जनजाति लोगों के परंपरागत शिक्षा, रोजगार एवं स्वास्थ्य के अधिकारों के संरक्षण एवं विकास की बात प्राथमिकताओं के रूप में कही है न कि आरक्षण के रूप में /
अधिकतर विकसित एवं विकासशील देशों जैसे अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड, बेल्जियम, जापान, रूस एवं चीन में कमजोर वर्ग के उत्थान के लिए प्राथमिकता का प्रावधान तो है और होना भी चाहिए परन्तु किसी प्रकार के भारतीय फॉर्मूले पर आधारित आरक्षण का प्रावधान नहीं / भारत ही एक मात्र दुनियां का ऐसा देश है जहाँ पर स्वयं को पिछड़ा, शोषित एवं कमजोर घोषित करने के लिए लोग सड़कों पर संघर्ष कर अपने ही देश की संपत्ति की तोड़फोड़ कर गौरवान्वित महसूस करते हैं / अभी हाल के आंदोलन इसके ज्वलंत उदाहरण हैं/ तब सवाल उठता कि आखिर हम देश को किधर ले जा रहे हैं ? ये तोड़फोड़ चाहे कोई भी करे, किसी भी मांग के लिए करे परन्तु ये कृत्य सभ्य एवं देशहित में कभी नहीं हो सकते / ऐसे आंदोलनों के दौरान हर कार्य ठप्प होने पर अनेकों मजदूर, ठेले व्यवसायी एवं गरीब लोगों के बच्चे यदि भूखे सोते हैं तो इसकी जिम्मेदारी किसकी होगी ? इन गरीबों, मजदूरों की जाति या वर्ग सिर्फ गरीबी होती है जो आजादी के 70 वर्ष बाद भी नारों, जुमलों एवं घोषणाओं के कर्मकांण्ड़ों में सिमट के रह गयी है / आज भी आरक्षित एवं अनारक्षित वर्ग के लाखों बच्चे स्कूल नहीं जा पाते, भर पेट भोजन नहीं कर पाते एवं मजदूरों की मजदूरी साइट पर ईंटों एवं मिट्टी से खेलते हुए बढे होते हैं और फिर अगली पीढ़ी के मजदूर बन जाते हैं/ सड़कों पर बवाल करने वालों ने आज तक उनको आरक्षण का मतलब नहीं समझाया क्योंकि उनका आरक्षण तो मजदूरी है / ये कैसी विडंबना है कि देश के आरक्षित वर्ग के “ए” श्रेणीं के अफसरों एवं केंद्रीय मंत्रियों के लक्ज़री कारों में सरपट दौड़ने वाले दलित बच्चे अभी भी काफी पिछड़े हुए हैं और उसी वर्ग के मैले कपड़ों में लिपटे, भूखे एवं मिट्टी की गाड़ियों में हकीकत के सपने देखने वाले दलित बच्चे काफी अगड़े हुए हैं /
अभी हाल के २ अप्रैल के भारत बंद आंदोलन में एक गरीब बुजुर्ग को पीटा ही नहीं वल्कि उसके फलों एवं फूलों टोकरी को इसलिए लूटा एवं बिखेरा क्योंकि वो अपने बच्चों के लिए शाम की दो रोटियों की व्यवस्था के लिए सड़क पर बैठा था/ आखिर ये किसके सामाजिक न्याय की जंग है? क्या उनके लिए जो गरीब, दलित एवं पिछड़े हुए हैं अथवा उनके लिए जो डण्डे के दम पर कार से उतर कर दलित होने का चश्मा पहने गरीबों का खून बहा रहे हैं,मानवता को रौंद रहे हैं? जरा सोचो कि आखिर हम सब आखिर किधर जा रहे हैं ? एक गरीब अथवा दलित बुजुर्ग की रोटी का आसरा उजाड़ते हुए एक युवा दलित आंदोलनकारी ने पूछा कि तुम्हारी जाति क्या है तो उस गरीब बुजुर्ग की लड़खड़ाती जवान ने सिर्फ इतना ही कहा कि ” यदि तुम दलित हो तो मुझे मंदिर के अंदर दो रोटी के लिए सेवा करने वाला गैर दलित सेवक समझकर लूट लो, मार लो और यदि तुम गैर दलित होतो मुझे दलित समझकर मंदिर के बाहर दो रोटी के लिए सेवा करने वाला गरीब इंसान समझकर लूट लो, मार लो “/ में तो इस भारत देश का सिर्फ गरीब भारतीय नागरिक हूँ/ मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं/ मुझे कुछ नहीं चाहिए सिर्फ दो रोटी के जुगाड़ एवं शांति के आलावा और वो तुम मुझे इन डंडों के साये में दे नहीं सकते / मेरे कर्मठ एवं ईमानदार खून की लालिमा इस देश के तिरंगे में है, देख सकते हो तो देखो / ये मेरा दुर्भाग्य है कि में एक ऐसा हिन्दुस्तानी हूँ जिसे पहले यवनआक्रांताओं ने लूटा, फिर मुझे अंग्रेजों ने मारा और आज अपनों ने लहूलुहान कर दिया/ जाओ अब …… मुझे मेरे भूख से बिलखते हुए बच्चों के लिए शाम की रोटी का इंतजाम करने दो / फुर्सत कभी मिले तो सोचना कि मेरे ख़ून में सिर्फ भारतीय तिरंगे का रंग है न कि किसी जाति, वर्ग अथवा समुदाय का / यही कारण है कि आज भी उसके जैसे गरीब का बच्चा गरीब है, 70 साल के आरक्षण के बाद भी और अमीर का बच्चा और अधिक अमीर / आज जब देश के लाखों लोग रसोई गैस पर सब्सिडी स्वेच्छा से छोड़कर गरीबों के घर महका सकते हैं तो ऐसा आरक्षित वर्ग के लोग अपने ही वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण का त्याग क्यों नहीं कर सकते? आखिर वो भी तो अपने ही हैं/ पहल करके तो देखो /आज देश की समस्त संस्थाओं का ये कर्त्तव्य बनता है कि वे प्रत्येक व्यक्ति को मानव गरिमा के साथ जीवन जीने का अवसर उपलब्ध कराये / उनको चाहिए कि सामाजिक न्याय एवं सहूलियतों की समय सीमायें एवं समीक्षा के मापदंड तय करें /
समानता के समस्त पहलुओं का यदि बारीकी से अध्ययन किया जाये और सम्बद्ध बिंदुओं की तर्क संगत व्याख्या की जाये तो ऐसा प्रतीत होता है कि देश की लोकतान्त्रिक सरकारों का इस बुनियादी लक्ष्य के प्रति न तो कोई स्पष्ट एवं निश्वार्थ दृष्टिकोण है और न ही कोई दूरगामी योजना/ देश की दशा एवं दिशा का निर्धारण सिर्फ सदन में धरने, सड़क प्रदर्शन, तोड़फोड़, मार्ग रोको एवं शांति प्रिय लोगों के मौलिक अधिकार कुचलने वाले आंदोलन कर रहे हैं/ देश में सामाजिक चेतना का होना उचित है परन्तु अतिचेतना पूर्ण उपद्रव इस देश की सामाजिक समरसता और कानून व्यवस्था को किधर ले जायेगा इस पर भी आज विचार करने की आवश्यकता है / जो लोग कल तक कमजोर वर्गों के लिए सामाजिक कल्याण के हर कदम का समरसता एवं न्यायिक दृष्टि से आगे होकर समर्थन करते थे वही कानून आज यदि उनके लिए पीड़ा एवं संघर्ष का कारण बन जाए तो यही यक्ष सवाल एक नवीन एवं दूरगामी समस्या को जन्म देगा /
अब वक्त आ गया है कि असमानता मूलक इस आरक्षण एवं समानता मूलक अनुसूचित जाति एवं जनजाति निरोधक कानून 1989 की समीक्षा अनिवार्य रूप से होनी ही चाहिए ताकि इसके दुष्प्रभावों को कम कर इसे और अधिक प्रासंगिक, उद्देश्यपूर्ण एवं प्रभावी बनाया जाये /
यहाँ पर संयम की आवश्यकता थी, संघर्ष की नहीं परन्तु ऐसा हुआ नहीं / आखिर कुछ तो सोचा होगा सर्वोच्च न्यायालय ने / देश की न्याय प्रक्रिया में अविश्वास तथा सड़कों पर भय पैदा करने वाले लोग न्याय प्रिय एवं कमजोर वर्ग के होंगे या उपद्रवी निर्णय आपको करना है / हर अविश्वास का निर्णय सड़क पर नहीं हो सकता / आंदोलनों का स्वरुप संविधान संवत, कानून संवत एवं तर्क संगत होना चाहिए, तभी ठीक रहता है क्योंकि भारत ७० साल की आजादी वाला एक परिपक़्व लोकतान्त्रिक देश है, हाल मैं आजाद हुआ नहीं /
सामाजिक न्याय का नवीन फॉर्मूला
सर्व प्रथम तो दलित वर्ग की मांग कि ” अनुसूचित जाति एवं जनजाति उत्पीड़न निरोधक कानून 1989 को इसके मूल स्वरूप में लाया जाए” को पूरी तरह मान लिया जाए। आखिर वो भी तो हमारे भाई-बहन हैं, उनके साथ अन्याय बर्दाश्त नहीं होना चाहिए। लेकिन ” निर्दोष को सजा भी नहीं मिलनी चाहिए ” ये क़ानून की मूल अवधारणा है, इसका भी शख़्ती के साथ पालन हो ऐसी व्यवस्था की जाये । इसके अनुसार सभी अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों को स्वयं पहल करनी चाहिए/ अभी हाल में दलित नेता शांत प्रकाश जाटव ने दिल्ली में धरना देकर मांग की है कि “जाति आधारित आरक्षण” को ख़त्म कर देश में ” जरुरत आधारित आरक्षण ” लागू किया जाये / ऐसी क्रांतिकारी एवं त्यागपूर्ण पहल का स्वागत किया जाना चाहिए /
इसके साथ ही अनुसूचित जाति एवं जनजाति निरोधक कानून 1989 में भी अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों को मांग करनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट इस कानून में इतना जोड़ दे कि यदि कोई दलित दुर्भावना पूर्वक इस कानून का दुरुपयोग करे तो केश के झूठे पाए जाने की स्थिति में गैर जमानती वारंट के साथ 2 साल की सश्रम कारावास की सजा उस दलित व्यक्ति को भी मिले जिसने इसका दुरुपयोग किया । बाकी सब स्वीकार्य। यदि दोनों की रजामंदी से केश बापिस लेने की स्थिति बनती है तो मानहानि राशि उस व्यक्ति द्वारा चुकाने की व्यवस्था भी हो जो दोषी है चाहे वो दलित वर्ग का हो या सामान्य वर्ग का ताकि गरीब दलित या गरीब सामान्य की आर्थिक स्थिति में भी कुछ संतुलन स्थापित हो सके। यही मार्ग है दोनों तरफ से अपराध, शोषण एवं अपमान खत्म करने का /
आरक्षण का प्रावधान चाहें तो अनंतकाल के लिए भी बरक़रार रखा जा सकता है लेकिन इसका कोई सर्वमान्य फार्मूला हो/ अभी हाल में मैंने यूनाइटेड नेशन्स के मानवाधिकार एवं सामाजिक न्याय से जुड़े कुछ विशेसज्ञों से बातचीत की/ उनके साथ बैठकर एक आरक्षण फार्मूला भी तैयार किया जो भारत सरकार एवं माननीय सर्वोच्च न्यायालय के विचारार्थ भेजा जा रहा है। इस फॉर्मूले के अनुसार –
किसी शायर ने ठीक ही कहा है कि –
दुनियाँ में सहारों का, तालिब न कभी बनना,
कमजोर बनाता है, इन्सां को सहारा भी/*
*/
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