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“नहीं बेटा, ऐसे नहीं ले सकता” : (लघुकथा)

Pradeep
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टिकट काउंटर पर भीड़ ज्यादा नहीं थी, पर समय कम था| ट्रेन छूटने में कुछ ही मिनट बचे थे| मेरे आगे एक वृद्ध छोटी बच्ची के साथ खड़े थे| क्लर्क ने १२० का टिकट बनाया| उन्होंने १०० के २ नोट आगे बढ़ाये तो क्लर्क ने झिड़क दिया, ” २० खुले दो “| वृद्ध ने असमर्थता जाहिर की तो उसने टिकट देने से मना कर दिया| वृद्ध ने मेरी और देखकर १०० का नोट बढ़ाया| मैंने पर्स टटोला तो १० के २-४ ही नोट थे| मैंने सर हिला दिया| वो जल्दी-२ पंक्ति में खड़े लोगो से पूछने लगा| किसी के भी पास ना थे| उसका चेहरा रुआंसा हो गया| समय हो चला था|
मैं टिकट लेकर मुड़ा तो देखा वो एक कोने में खड़ा है| चेहरे में असमंजस और लाचारी के भाव थे| बच्ची उसका कोट खींचकर ट्रेन की और इशारा कर रही थी| मैंने पर्स से २० रूपये निकाले और उनके हाथ में रखने लगा तो उन्होंने हाथ खींच लिए| “नहीं बेटा, ऐसे नहीं ले सकता, पाप लगेगा” | मैं बोला, ” चाचा अगर आपको सिर्फ २० रूपये के लिए रुकना पड़ा तो मुझे पाप लगेगा”| मैंने उन्हें पैसे थमाए और बाहर आ गया| दिल में काफी सुकून था, शायद वो दुआ दे रहे थे|

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