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ये बुतों कि महफ़िल है..

Pradeep
Pradeep
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 लफ्ज रुकते नहीं लबों पर, आज ग़ज़ल होने तक, इक उम्र गुजर जाती हैं, तेरी यादों में कल होने तक. . ये बुतों कि महफ़िल हैं, पत्थरो के शहर में, इंसान तो जिन्दा थे, जज्बात-ए-कतल होने तक. . डूबती कश्ती के मुसाफिर हो तुम भी, बेमानी के दलदल में, गैरत तो जिन्दा थी, उसूलों के अमल होने तक. . वो वक़्त ही और था, ताउम्र तेरी परश्तिश का, इश्क आज जिन्दा हैं तो, इक हूर-ए-शकल होने तक. . हुनर के बस में नहीं, ये ताकतों का मुद्दा हैं, तू उठेगा ऊँचा, बस एक नसल होने तक.

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