Pradeep
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हसरतों का जनाजा, निकालते हो तुम,
जो आज इक मासूम का,
कल तुम ही भरोगे सजा,
मियाँ इनके खून का|
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जेबें भर ली आज तुमने,
इनका पसीना बेचकर,
अब उतारोगे कर्ज कैसे,
इस पसीने कि हर बूँद का|
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इस ज़माने ढूंढने, ‘इंसानियत’
मैं चला था,
जो बिक रहा था नुक्कड़ो पर,
मानो सामान हो परचून का|
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कभी कुर्सियों पर बैठकर,
कभी कुर्सियों को तोड़कर,
जैसे चाहा तुमने चलाया,
ये खिलौना क़ानून का|
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पर जब लगी अवाम जागने,
और लगा ये फितूर भागने,
तो पकड़ कर भागते हो,
अब नाड़ा अपनी पतलून का|
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