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बीते पन्द्रह बरस का हिंदी सिनेमा

http://puneetbisaria.wordpress.com/
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बीते पन्द्रह बरस का सिनेमा अपनी कुछ ज़रूरी और गैर ज़रूरी बातों के लिए इतिहास में याद किया जाएगा। इस दौर में स्त्री चीज़ से तंदूरी मुर्गी, जलेबीबाई, मुन्नी और भी न जाने क्या क्या बनी। लेकिन इस डेढ़ दशक के दौर को याद किया जाएगा लगान (2001), ब्लैक (2005), लगे रहो मुन्ना भाई (2006), चक दे इंडिया(2007), तारे ज़मीन पर (2007), अ वेडनेसडे (2008), थ्री इडियट्स (2009), पा (2010), पान सिंह तोमर (2012), गैंग ऑफ़ वासेपुर (2012), लंचबॉक्स (2014), रंगरसिया(2014) आदि के लिए। इनके अलावा ब्लैक फ्राइडे, क्या दिल्ली क्या लाहौर, परिणीता, गांधी माय फादर, पिंजर, गंगाजल, इक़बाल, फेरारी की सवारी ओमकारा आदि भी इस अवधि की उपलब्धियां हैं। हिंदी सिनेमा की समस्या यह है कि जो सौ करोड़ी फ़िल्में हैं उनमें से प्रायः 90 प्रतिशत बकवास और दोहराव का शिकार हैं। जो अच्छी और नए विषय की फ़िल्में हैं, उनका बॉक्स ऑफिस हश्र प्रायः अच्छा नहीं होता। शायद भारत में अभी दर्शकों का टेस्ट डेवलप नहीं हो सका है, तभी तो इन फिल्मों में दरवाजा खुला रखकर बुलाने वाले आमन्त्रण देते गाने सफल हो जाते हैं और अच्छे गाने कहीं खो जाते हैं। इस पर भी तुर्रा यह कि हमारी फ़िल्में ऑस्कर में नहीं टिकतीं। पहले हम अपना टेस्ट तो डेवलप करें, उसके बाद ऑस्कर जीतने की सोचें। अनुराग कश्यप ने मोहल्ला लाइव के एक कार्यक्रम में अच्छे और मौलिक पटकथा लेखकों की कमी की ओर भी इशारा किया था। हमें इस जोर भी ध्यान देना होगा। दूसरी बड़ी बात यह कि हिंदी सिनेमा के पास अच्छे फ़िल्म समीक्षक भी नहीं हैं। अक्सर पेड़ समीक्षक कचरा फिल्मों को अच्छी रेटिंग देकर दर्शकों का पैसा और समय लुटवा देते हैं। हमें अच्छे फ़िल्म समीक्षक भी पैदा करने होंगे। दूसरी बात यह कि टेक्नोलॉजी के इस दौर में फिल्मकारों को खुद ही अच्छे समीक्षकों के पास अपनी फ़िल्म समीक्षा हेतु भेजनी होगी ताकि उनकी फ़िल्में नोटिस लिए बगैर डब्बे में न बन्द हो जाएं। तीसरी और अंतिम बात यह कि स्किन शो के लोभ में निर्देशक अच्छी प्रतिभाओं के स्थान पर बदन दिखाऊ अभिनेताओं अभिनेत्रियों को मौका देकर सिनेमा का भारी नुकसान कर रहे हैं। अक्सर हिंदी न जानने वाले या अंग्रेजी में डायलॉग रटने वाले हीरो हेरोइन ही फिल्मों की शोभा बढ़ाते हैं। इनकी जगह प्रतिभा को प्रोत्साहन मिलना चाहिए तभी दुनिया में सर्वाधिक फिल्में बनाने वाले इस देश को सत्यजीत रॉय के दौर का गौरव वापस मिल सकेगा।

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