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अप्रिय सवालों से जूझती पुरुषोत्तम अग्रवाल की कहानी नाकोहस

http://puneetbisaria.wordpress.com/
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पुरुषोत्तम अग्रवाल की ख्याति एक आलोचक के तौर पर है। पाखी के अगस्त अंक में उनकी कहानी नाकोहस प्रकाशित हुई है। जब मैंने इस कहानी को पढ़ा तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि इस कहानी के माध्यम से एक आलोचक यह बताना चाहता है कि एक कथाकार को कैसे कहानी लिखनी चाहिए और वर्तमान समय के वे कौन से हौलनाक सच हैं, जिन्हें आज की कहानी में गढ़ा और मढ़ा जाना चाहिए। एक कलात्मक औदात्य के बोझ से लहूलुहान यह कहानी उत्तर आधुनिक समाज की गप्प गोष्ठियों, मिथकीय अंतर्द्वंद्वों तथा सांप्रदायिक सवालों से जूझती है। समालोचन में राकेश बिहारी ने इसे कथाहीन कहानी कहा है। मैं इससे आगे बढ़कर कहना चाहता हूँ कि यह कहानी वास्तव में कहानी न होकर एक ऐसा विमर्श है जिसमे कहानी की छौंक लगाने का असफल प्रयास किया गया है। गज- ग्राह कथा, पंचतंत्र की कहानियों, नचिकेता, ईसा मसीह, इब्ने सिन्ना इज्तिहादी, वाल्तेयर, लाओत्से, एलिस इन वंडरलैंड के सन्दर्भ के बहाने वे पाठकों को जिस सम्मोहनकारी दुनिया में ले जाना चाहते हैं, वास्तव में वे उसे वहां तक नहीं ले जा पाते और पाठक यह जान पाने में असमर्थ रहता है कि ‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है’। विवरणों की बहुलता और बिम्बों तथा प्रतीकों का अत्यधिक प्रयोग इसकी पठनीयता और ग्राह्यता में अवरोध खड़े करता है। गिरगिट और मगरमच्छ के बिम्बों में भी घालमेल हो गयी है और यह समझना किंचित दिक्कततलब हो जाता है कि पात्रों को मगरमच्छ नोच रहा है या गिरगिट।
अब बात करते हैं संक्षिप्ताक्षर चमत्कार की, जिनके कारण इस कहानी की पर्याप्त चर्चा सोशल साइटों विशेषकर ब्लॉग्स एवं फेसबुक पर हो रही है। नाकोहस, आभाआ, बौनेसर, एटीएम जैसे शब्द चमत्कार सृजन अवश्य करते हैं लेकिन वे कहानी के विकास में कहीं सहायक होते नहीं प्रतीत होते। ऐसा लगता है कि ‘हर जगह सच बस गप है, सबसे सच्ची हमारी गप है’ इसे साबित करने के फेर में लेखक यह भूल गया कि उसे गप से आगे बढकर एक कहानी भी लिखनी है, जिसमें घटनाओं को सुनियोजित तरीके से आगे बढाया जाना ज़रूरी होता है।
लेखक जिस फंतासी के सहारे इस कहानी को लेकर आगे बढे हैं, उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक की दृष्टि वर्तमान समय के कुछ ज़बरदस्त सवालों से मुठभेड़ करना चाहती थी, मसलन- साम्प्रदायिकता और बाज़ारवाद लेकिन यहाँ कलात्मक औदात्य के आग्रह के आगे ये प्रश्न कहीं नेपथ्य में जाते दीख पड़ते हैं। इन सब न्यूनताओं के बावजूद यह कहानी शैल्पिक नव्यता और समकालीन समय के कुछ बेहद अप्रिय सवालों से जूझने के लिए हमेशा याद की जाएगी।

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