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ओह माई गॉड की प्रशंसात्मक प्रतिक्रियाओं को पढने के बाद कल टी वी पर यह फिल्म आद्योपांत देखी। यह फिल्म इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है कि इसमें पोंगापंथियों और कठमुल्लों की जमकर खबर ली गयी है और भक्ति के तार्किक स्वरूप को प्रतिष्ठा दी गयी है। इस फिल्म की यू एस पी है परेश रावल का ज़ोरदार अभिनय और कमज़ोर कड़ी हैं तथाकथित सुपरहीरो अक्षय कुमार। शायद भगवान् के रूप में उनकी इस फिल्म में अधिक ज़रूरत भी नहीं थी लेकिन उनका इस्तेमाल फिल्म की ओर युवा दर्शकों को आकर्षित करने के लिए किया गया है या धर्मप्राण भारतीय जनता को बहलाने के औज़ार के तौर पर किया गया है। यदि वे न होते तो इस फिल्म का सन्देश और भी सार्थक हो सकता था। लीलाधर स्वामी,सिद्धेश्वर महाराज और गोपी मैया जैसे पात्रों से देश के कुछ तथाकथित नामचीन संतों महात्माओं एवं “माँओं ” की छवियाँ उभरने लगती हैं। कुछ दृश्यों से यदि बचा जाता तो फिल्म अधिक प्रभावशाली हो सकती थी जैसे- न्यायालय में कांजी को पैरालिसिस का अटैक पड़ना या भगवान् के आ जाने के बाद अचानक उन पर आक्रमण बंद हो जाना या भगवान द्वारा अपने ही खिलाफ मुक़दमे में सहायता करना। उमेश शुक्ल का निर्देशन कहीं कहीं पर उनकी समझौतापरस्ती को दर्शाता है लेकिन भारत जैसे तथाकथित सहिष्णु देश में सहिष्णुता की सीमा के अन्दर फिल्म बनाना ज़रूरी है वर्ना उसका हश्र विश्वरूपम और आंधियां या ब्लैक फ्राइडे जैसा हो सकता था। लेकिन इतनी सावधानियों के बावजूद यह फिल्म यू ए ई में बैन कर दी गयी थी और जालंधर में पंजाब राज्य महिला कांग्रेस की उपाध्यक्षा निमिषा मेहता ने हिन्दुओं की भावनाएं आहत करने के लिए इस फिल्म के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी जिसके कारण अक्षय कुमार को पुलिस प्रोटेक्शन देना पडा था। लेकिन 20 करोड़ की लगत से इस फिल्म ने 84 करोड़ का कारोबार करके यह सिद्ध कर दिया कि हिन्दी सिने दर्शक विचारवान है और वह धर्म की कट्टरता का अन्धानुकरण नहीं करता।
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