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न जर्मन न संस्कृत
केंद्रीय विद्यालयों में तीसरी भाषा के तौर पर संस्कृत बनाम जर्मन भाषा का विवाद बेवजह है। सरकारों का यह अतीत रहा है कि वे तुच्छ स्वार्थों के लिए भाषा जैसी संवेदनशील चीज़ों को भी हथियार बनाने से नहीं चूकतीं। 2011 में संस्कृत को हटाकर जर्मन को तीसरी भाषा का दर्जा देते समय कोई हो हल्ला नहीं मचा लेकिन 2014 में सरकार ने जैसे ही जर्मन भाषा को तीसरी भाषा के तौर पर हटाया त्यों ही बावेला मचने लगा। मुझे लगता है कि इस विषय पर भारत सरकार का दृष्टिकोण बिलकुल सही है। वह न तो संस्कृत का पक्ष ले रही है और न ही जर्मन का। कम से कम शिक्षा के क्षेत्र में तो हमें अपने नौनिहालों पर जबरन अपनी पसंद नहीं थोपना चाहिए। मैं तो इस पक्ष में भी नहीं हूँ कि कक्षा 10 और कक्षा 12 में हिन्दी विषय के अंतर्गत संस्कृत पढाई जाए। बच्चे को मातृभाषा के साथ कोई एक अन्य भारतीय भाषा पढने का विकल्प दिया जाना चाहिए और प्रयास यह होना चाहिए कि वह दूसरी भाषा किसी अन्य प्रान्त की राजभाषा अथवा जीवंत भाषा हो। विदेशी भाषा के अंतर्गत जर्मन समेत अन्य देशों की भाषाएँ विद्यार्थी अपनी रुचि से चयनित कर सकते हैं लेकिन विदेशी भाषा सीखने के लिए कक्षा 11 से कम के विद्यार्थियों पर बेजा दबाव नहीं डाला जाना चाहिए। जहाँ तक संस्कृत का प्रश्न है तो हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि दुर्भाग्य से यह भाषा अब अपनी अंतिम साँसें गिन रही है और शिक्षा में इसे जबरन लागू कर देने भर से इसमें प्राण नहीं फूंके जा सकते। कला वर्ग के 10+2 स्तर के छात्रों को संस्कृत ऐच्छिक विषय के रूप में जैसे आज भी पढ़ाई जा रही है, वैसे ही पढ़ाई जा सकती है। इस विवाद में जर्मनी के राजदूत का रवैया बेहद आपत्तिजनक रहा है। उन्होंने जर्मन भाषा के पक्ष में बेवजह लॉबिंग की और संस्कृत के विद्वानों के साथ मीटिंग की। यह भारत की शिक्षा व्यवस्था में गैरज़रूरी हस्तक्षेप है। यह एक राजदूत की गरिमा के भी खिलाफ है। पाकिस्तान के राजदूत भी कश्मीर के अलगाववादियों से बातचीत कर ऐसी ही अपरिपक्वता का परिचय पहले दे चुके हैं। भारत सरकार को जर्मनी की सरकार से इस मामले में ज़रूरी बातचीत करनी चाहिए ताकि भविष्य में किसी भी देश के राजदूत हमारे देश के अंदरूनी मामलों में फिजूल की दखलंदाजी न कर सकें।
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