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‘कालाकांकर नरेश राजा रामपाल सिंह ने सन 1887 में इंग्लैण्ड से वापस आने पर भारत में दैनिक हिन्दुस्थान समाचार पत्र निकालने का फैसला किया। जब कलकत्ता में उन्होंने मालवीय जी का विद्वतापूर्ण उदबोधन सुना तो उन्होंने मालवीय जी से अनुरोध किया कि वे इसके सम्पादक बन जाएँ। सम्पादक बनने को तैयार होने के लिए मालवीय जी ने राजा साहब से शर्त रखी कि वे इस शर्त पर हिन्दुस्थान का सम्पादकीय स्वीकार करेंगे कि जिस समय राजा साहब मदिरापान किये हों, उस समय वे किसी भी प्रकार के विचार विमर्श के लिए उन्हें नहीं बुलवाएंगे। यदि इस अवस्था में कभी उन्हें बुलाया गया तो वे उसी दिन से अपना कार्य छोड़ देंगे। राजा साहब चूंकि मालवीय जी की विद्वता से अत्यधिक प्रभावित थे, इसलिए उन्होंने पंडित जी की इस शर्त को स्वीकार कर लिया। लेकिन ढाई साल बाद राजा साहब से भूल हो ही गयी। राजा साहब को एक बार किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर मालवीय जी से वार्त्तालाप करना था लेकिन उस समय उन्होंने शराब पी रखी थी। मालवीय जी जैसे ही उनसे मिलने पहुंचे, उन्हें समझ में आ गया कि राजा साहब ने मदिरापान किया हुआ है। उस दिन किसी तरह राजा साहब से अनमने ढंग से बात करने के बाद मालवीय जी ने अगले दिन एक पत्र राजा साहब को भिजवाया जिसमें लिखा था,” राजा साहब, आपकी हमारी एक शर्त थी, वह शर्त कल आपने तोड़ दी है। यह लीजिए मेरा त्यागपत्र। मैं अब यहाँ से जा रहा हूँ।”
राजा साहब को अपनी भूल का अहसास हुआ। उन्होंने मालवीय जी को रोकने की बहुत चेष्टा की लेकिन मालवीय जी टस से मस नहीं हुए। उन्होंने इस बात की भी परवाह नहीं की कि उनका परिवार अब कैसे पलेगा। ऐसे थे दृढ निश्चयी मालवीय जी। यह सन 1889 की घटना है।’
( मेरी पुस्तक पंडित मदनमोहन मालवीय का एक अंश। लक्ष्मी प्रकाशन, जी 30/बी, गंगा विहार, गली नम्बर 4, दिल्ली- 110094 से प्रकाशित)
पंडित मदनमोहन मालवीय जी की पुण्यतिथि पर कृतज्ञ नमन ।
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