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बालकृष्ण शर्मा नवीन की पुण्यतिथि पर उन्हें सादर नमन !

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शाजापुर स्थान में ले आईं। यहाँ से प्रारंभिक शिक्षा लेने के उपरांत इन्होंने उज्जैन से दसवीं और कानपुर से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की। इनके उपरांत लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक श्रीमती एनी बेसेंट एवं श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के संपर्क में आने के बाद उन्होंने पढ़ना छोड़ दिया। शाजापुर से अंग्रेज़ी मिडिल पास करके वे उज्जैन के माधव कॉलेज में प्रविष्ट हुए। इनको राजनीतिक वातावरण ने शीघ्र ही आकृष्ट किया और इसी से वे सन् 1916 ई. के लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन को देखने के लिए चले आये। इसी अधिवेशन में संयोगवश उनकी भेंट माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त एवं गणेशशंकर विद्यार्थी से हुई। सन् 1917 ई. में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करके बालकृष्ण शर्मा गणेशशंकर विद्यार्थी के आश्रम में कानपुर आकर क्राइस्ट चर्च कॉलेज में पढ़ने लगे।
बालकृष्ण शर्मा जब बी.ए. फ़ाइनल में पढ़ रहे थे, गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलन के आवाहन पर वे कॉलेज छोड़कर व्यावहारिक राजनीति के क्षेत्र में आ गये। 29 अप्रैल, 1960 ई. को अपने मृत्युपर्यन्त वे देश की व्यावहारिक राजनीति से बराबर सक्रिय रूप से सम्बद्ध रहे। उत्तर प्रदेश के वे वरिष्ठ नेताओं में एक एवं कानपुर के एकछत्र अगुआ थे। भारतीय संविधान निर्मात्री परिषद के सदस्य के रूप में हिन्दी भाषा को राजभाषा के रूप में स्वीकार कराने में उनका बड़ा योगदान रहा है। 1952 ई. से लेकर अपनी मृत्यु तक वे भारतीय संसद के भी सदस्य रहे हैं। सन् 1955 ई. में स्थापित राजभाषा आयोग के सदस्य के रूप में उनका महत्त्वपूर्ण कार्य रहा है।
जहाँ तक उनके लेखक-कवि व्यक्तित्व का प्रश्न है, लेखन की ओर उनकी रुचि इंदौर से ही थी, परन्तु व्यवस्थित लेखन 1917 ई. में गणेशशंकर विद्यार्थी के सम्पर्क में आने के बाद प्रारम्भ हुआ।गणेशशंकर विद्यार्थी से सम्पर्क का सहज परिणाम था कि वे उस समय के महत्त्वपूर्ण पत्र ‘प्रताप’ से सम्बद्ध हो गये थे। ‘प्रताप’ परिवार से उनका सम्बन्ध अन्त तक बना रहा। 1931 ई. में गणेशशंकर विद्यार्थी की मृत्यु के पश्चात् कई वर्षों तक वे ‘प्रताप’ के प्रधान सम्पादक के रूप में भी कार्य करते रहे। हिन्दी की राष्ट्रीय काव्य धारा को आगे बढ़ाने वाली पत्रिका ‘प्रभा’ का सम्पादन भी उन्होंने 19211923 ई. में किया था। इन पत्रों में लिखी गई उनकी सम्पादकीय टिप्पणियाँ अपनी निर्भीकता, खरेपन और कठोर शैली के लिए स्मरणीय हैं। ‘नवीन’ अत्यन्त प्रभावशाली और ओजस्वी वक्ता भी थे एवं उनकी लेखन शैली (गद्य-पद्य दोनों ही) पर उनकी अपनी भाषण-कला का बहुत स्पष्ट प्रभाव है। राजनीतिक कार्यकर्ता के समान ही पत्रकार के रूप में भी उन्होंने सारे जीवन कार्य किया।
कृतियाँ
उर्मिला, कुंकुम,रश्मिरेखा, ‘अपलक’ और ‘क्वासि’. प्रस्तुत हैं उनकी अमर रचना —–
विप्लव गान
कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ,जिससे उथल-पुथल मच जाए,
एक हिलोर इधर से आए,एक हिलोर उधर से आए,
प्राणों के लाले पड़ जाएँ,त्राहि-त्राहि रव नभ में छाए,
नाश और सत्यानाशों का -धुँआधार जग में छा जाए,
बरसे आग,जलद जल जाएं,भस्मसात भूधर हो जाएं,
पाप-पुण्य सद्सद भावों की,धूल उड़े उठ दायें-बायें,
नभ का वक्षस्थल फट जाए-तारे टूक-टूक हो जाएं
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ,
जिससे उथल-पुथल मच जाए।
माता की छाती का अमृत-मय पय काल-कूट हो जाए,
आँखों का पानी सूखे,
वे शोणित की घूंटे हो जाएं,एक ओर कायरता कांपे,
गतानुगति विगलित हो जाए,
अंधे मूढ़ विचारों की वह अचल शिला विचलित हो जाए,
और दूसरी ओर कंपा देने वाला गर्जन उठ धाए,
अंतरिक्ष में एक उसी नाशकतर्जन की ध्वनि मंडराए,
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ,
जिससे उथल-पुथल मच जाए।
नियम और उपनियमों के ये बंधक टूक-टूक हो जाएं,
विश्वंभर की पोषक वीणा के सब तार मूक हो जाएं,
शांति-दंड टूटे उस महा-रुद्र का सिंहासन थर्राए,
उसकी श्वासोच्छ्वास-दाहिका,विश्व के प्रांगण में घहराए,
नाश! नाश!! हा महानाश!!! की,
प्रलयंकारी आंख खुल जाए,
कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ,जिससे उथल-पुथल मच जाए।
सावधान! मेरी वीणा में,चिनगारियां आन बैठी हैं,
टूटी हैं मिजराबें, अंगुलियाँ दोनों मेरी ऐंठी हैं।
कंठ रुका है महानाश का,मारक गीत रुद्ध होता है,
आग लगेगी क्षण में,
हृद्तल में अब क्षुब्ध युद्ध होता है,
झाड़ और झंखाड़ दग्ध हैं –
इस ज्वलंत गायन के स्वर सेरुद्ध गीत की क्रुद्ध तान है निकली मेरे अंतरतर से!
कण-कण में है व्याप्त वही स्वर,
रोम-रोम गाता है वह ध्वनि,वही तान गाती रहती है,
कालकूट फणि की चिंतामणि,जीवन-ज्योति लुप्त है –
अहा!सुप्त है संरक्षण की घडि़यां,लटक रही हैं प्रतिपल में
इस,नाशक संभक्षण की लडि़यां।
चकनाचूर करो जग को, गूँजे ब्रह्मांड नाश के स्वर से,
रुद्ध गीत की कु्रद्ध तान है,निकली मेरे अंतरतर से!
दिल को मसल-मसल मैं मेंहदी रचता आया हूँ यह देखो,
एक-एक अंगुल परिचालन,में नाशक तांडव को देखो!
विश्वमूर्ति! हट जाओ!!
मेरा,भीम प्रहार सहे न सहेगा,टुकड़े-टुकड़े हो जाओगी,
नाशमात्र अवशेष रहेगा,आज देख आया हूँ –
जीवन के सब राज़ समझ आया हूँ,
भू्र-विलास में महानाश के पोषक सूत्र परख आया हूँ,
जीवन गीत भूला दो-कंठ,मिला दो मृत्यु गीत के स्वर से
रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान है,निकली मेरे अंतरतर से!

उनकी पुण्य तिथि पर उन्हें सादर नमन।

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