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ढंग से इस फिल्म में चित्रित हुई हैं। देवधर के रूप में एक प्रगतिशील लड़के का इस सामंती व्यवस्था को चुनौती देना और यह कहना कि “जगह बदलने से ये भेदभाव उंच नीच छुआछूत की लड़ाई ख़त्म नहीं होगी, किसी न किसी को तो यह लड़ाई लड़नी ही होगी।” इस बात का सबूत है कि आठवें दशक की शुरुआत में ही स्त्री जागरण पर भारतीय मस्तिष्क आंदोलित होने लगा था और इस फिल्म को सफल बनाकर उसने इसे साबित भी किया। यह फिल्म यह भ दिखलती है कि सामाजिक रूढ़ियों तथा सामाजिक बहिष्कार के भय भी इतने हावी हुआ करते थे कि लोग अपनि प्यारी बेटियों को भी सजा देने को मजबूर हो जाते थे। ख़ुशी की बात है की इअ फिल्म के तीन दशक बाद ही ये कुरीतियाँ अब मंद पड़ने लगी हैं। हालाँकि बम्बइया मसाले भी फिल्म में भरपूर हैं लेकिन फिर भी यह फिल्म एक सार्थक सन्देश देने में सफ़ल हुई है। एक सरोकार संपन्न फिल्मकार की हैसियत से यह राज कपूर की भारी सफलता है।
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