रोज होती आत्महत्याएं एक सवाल हमारे मन में छोड़ जाती है! क्या सफलता का मतलब ही ख़ुशी है? क्या जिन्होंने मंजिल पा ली है वो मुस्कुरा रहे हैं? समाज और परिवार की अपेक्षाएं और अपने खुद के सपने हमें अक्सर बोझ से लगने लगते हैं और उसके बाद धीरे धीरे कब ये बोझ अवसाद में बदल जाते है । हमें पता भी नहीं चलता ।आज अवसाद भारत में एक महामारी का रूप लेते जा रहा है।
अवसाद के कई कारण हो सकते हैं शारीरिक, मानसिक, आर्थिक इत्यादि। अगर गौर से इन व्यक्तियों पर अध्ययन किया जाए तो ये बात सामने आती है कि ऐसे लोगों की कुछ अपेक्षाएं होती है जैसे किसी के साथ अच्छाई के बदले अच्छाई, योग्यतानुसार सफलता, लागत के हिसाब से मुनाफा,…. और जब ये अपेक्षाएं पूरी नहीं होती तो वह व्यक्ति अवसाद से ग्रसित हो जाता है।
अवसाद से पीड़ित व्यक्ति अक्सर झूठी मुस्कराहट का दुशाला ओढ़े होते है । आप नहीं समझ सकते कौन कब किस समस्या से गुजर रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार मुताबिक 7.5 प्रतिशत भारतीय आबादी किसी न किसी रूप में मानसिक विकार से ग्रस्त है । मानसिक विकार से पीड़ित 70 प्रतिशत लोगों को इलाज नहीं मिल पाता। ये लोग कहीं और नहीं हैं, हमारे और आपके बीच बैठे हैं, मुस्कुरा रहे हैं । उसके बावजूद हम भारतीय आज तक अवसाद को समझ ही नहीं पाए हैं।
हाल ही के एक अध्ययन में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति लोगों के नज़रिए का आकलन किया गया और उनसे पूछा गया कि आप मानसिक बीमारी वाले व्यक्ति का वर्णन कैसे करेंगे? 56% ने कहा कि जो खुद से बात करता है; 9% ने कहा उदास; 15% ने उन्हें मन्द कहा; 20% के मुताबिक उन्हें बेवकूफ / पागल कहा जाता है और यही हमारे व्यवहार में भी झलकता है. इस व्यवहार से रोगी शर्म, पीड़ा और अलगाव के दुष्चक्र में फंस जाते हैं । यह समझने की जरुरत है कि जब तक हम मानसिक समस्याओं को सामान्य मानकर सहज नहीं हो जाएंगे, तब तक अवसाद ग्रस्त लोग स्वीकार करने से भी घबराएंगे ।
अपने आसपास के लोगों के प्रति संवेदनशील बनिए। अपने दोस्तों से, चाहने वालों से समय-समय पर पूछते रहिये कि सब ठीक तो है न? कहीं भी संदेह लगे, कोई ज्यादा अवसाद में लगे तो उसकी स्थिति समझने की कोशिश कीजिये ताकि फिर कोई मजबूर होकर आत्महत्या ना करें । अवसाद किसी महामारी से कम नहीं हैं। जो सबकी परवाह करते हुए अपनी हर ख्वाईश को दफन कर देता है। वो सिर्फ़ बदले में अपनापन चाहता है। जोकि इस स्वार्थी दुनिया में मिलता नहीं। यहां लोग अपना दुःख सुनाने के लिए सौ लोग इकट्ठे कर लेते हैं पर किसी एक का दुःख सुनने को तैयार नहीं होते। धन दौलत से ज्यादा अपनापन और प्यार की जरूरत होती है । कब समझेंगे सब?????
पूनम गुप्ता पूर्णिमा देहरादून उत्तराखंड स्वरचित एवं मौलिक अधिकारों से सुरक्षित
डिस्क्लेमर: उपरोक्त विचारों के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी हैं। जागरण जंक्शन किसी भी दावे या आंकड़े की पुष्टि नहीं करता है।
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