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निर्भया की डॉक्यूमेंट्री पर:

pushyamitra
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kevin-carter-vulture
ये बहुचर्चित तस्वीर है मार्च 1993 में सूडान में फैली भयंकर महामारी की(फोटोग्राफर- केविन कार्टर), तस्वीर में जैसा कि स्पष्ट है एक बच्चा है जो भूख और बीमारी से मरने वाला है, पीछे एक गिद्ध है जो उसके मरने का इंतज़ार कर रहा है ताकि उसे खा सके | मगर इस तस्वीर के चर्चित होने का कारण सिर्फ इतना नहीं है जितना इस तस्वीर में दिख रहा है, ये तस्वीर पुरस्कृत भी हुई | इस तस्वीर पर सवाल ये उठा कि किस कठोर ह्रदय से तस्वीर लेने वाले ने सिर्फ तस्वीर ली और बच्चे को उसी के हाल पर छोड़ दिया | इस बात पर फोटोग्राफर केविन कार्टर की खूब निंदा की गयी, फलस्वरूप जुलाई 1994 में उसने घोर ग्लानि से आत्महत्या कर ली |
तो कहने का आशय ये है कि केविन कार्टर ने तो समझ लिया कि उसका पाप क्या था, सूडान के हालात पर बच्चे की भूख एक समस्या थी, मगर एक छोटा सा समाधान तो केविन के पास था ही, यही उसकी ग्लानि थी कि वह उसे बचा सकता था मगर उसने सिर्फ तस्वीर खींची और चलता बना! निर्भया पर डॉक्यूमेंट्री बनाना इससे कम नहीं है, पूरे विश्वभर में लाखों निर्भया रोज़ मारी जा रही हैं मगर लोग सिर्फ दुष्कर्मों पर फिल्में बनाने में लगे हुए हैं, फिल्मों से ये घटनाएं नहीं रूकती साहब, बल्कि जैसी मानसिकता है उसका पोषण होता है, जो नीच हैं वे नीचता के नए तरीके सीखते हैं और जो भद्र हैं वे उन लोगों से घृणा को और बढ़ाते हैं!
किसी के कष्टों पर फिल्में बनाया जाना, कष्ट देने वालों का इंटरव्यू लेना, उनके बचाव वाले लोगों के बयानों पर चर्चा करना, वास्तव में हम उस नीच युग में जी रहे हैं जिसमें संवेदनाएं एक बेचने की वस्तु मात्र बन गयी है ! हम आपसे ये नही जानना चाहते कि निर्भया कैसे मरी…हमें नहीं जानना कि वो राक्षस क्या सोचते हैं क्या बोलते हैं …हमें जानना है तो सिर्फ इतना कि इस सबका समाधान क्या है? है क्या आपके पास कुछ समाधान? सिर्फ ये फिल्में बनाने वाले ही नहीं, बल्कि वे सभी इसी श्रेणी में आते हैं जो निर्भया की पीड़ा का वर्णन अपने लेखों/ कविताओं में कर रहे थे, पूरे दो दो पन्नों में वर्णन किया गया कि निर्भया के साथ क्या क्या हुआ..सजीव चित्रण जी, सिर्फ निर्भया ही नहीं पूरे स्त्री समाज के भयंकर कष्टों का वर्णन फिल्मों में किया जाता रहा है, ढूंढ ढूंढ के वीभत्स दृश्य डाले जाते रहे हैं, और स्त्रीचिंतक होने का तमगा छाती पे लगाये घूमते फिरे| सही अर्थों में इन्हे स्त्रियों के दुखों से कोई वास्ता नहीं, क्या यही लोग अपने बच्चो के दुखों पर डॉक्यूमेंट्री बना सकते हैं,? नहीं! उस दशा में ये लोग भागते हैं उपचार के लिए, प्रतिशोध के लिए !
कई चित्रकार स्त्री कष्टों पर चित्र बनाते हैं, क्या वे अपने अपने सम्बन्धियों के कष्टों पर भी चित्र बनाने का धैर्य रख सकते हैं? यदि नहीं तो स्पष्ट हैं उन्हें कोई दुःख नहीं हालात पर, जहाँ दुःख है वहां धैर्य संभव ही नहीं ! आप क्यों पोस्टमार्टम करते हैं किसी के दुखों का? यदि आपको लिखना है, तो समाधान लिखिए, यदि फिल्म बनानी है तो समस्या के हल पर फिल्म बनाइये, कब तक वही समस्याओं का चित्रण करेंगे? अब समाज को खूब पता है कि समाज की समस्या क्या है| आप समाधान पर बात कीजिये , हमें समाधान चाहिए! समाज के क्या हालात हैं ये बताने के लिए इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया काफी है !
“साहित्य समाज का दर्पण है” भय्या कब तक मात्र दर्पण बनके रहेगा? ये दर्पण मार्गदर्शक क्यों नहीं बन पा रहा ? क्यों नहीं बताता समाधान भी? पत्थर मार कर तोड़ दो इस दर्पण को जो सिर्फ दोष दिखाना ही जानता है !
अब ये ढोंग ढकोसला बंद कीजिये समाज खूब जानता है कि वो कैसा है, समाज ये भी जानता है कि आप क्या हैं, समाज को आपकी कृतियों में अपनी शक्ल नहीं देखनी, वो समाधान चाहता है, यदि आपके पास है तो बोलिए वर्ना रास्ता छोड़िये, कब तक शब्द बदल बदल कर वही समस्याएं गाते रहेंगे?

-पुष्यमित्र उपाध्याय
एटा

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