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कमल और कीचड़

pushyamitra
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“देखते हो कमल को?
खिल आया है कीचड़ की
कलुषता को चीर
उज्ज्वल, धवल  पुष्पराज
कि कीचड़ की एक बूंद भी ठहरती नहीं इस पर
नायक, पूज्य, दिव्य, सुंदर अशेष
अप्रतिम सुगंध का स्वामी यह पुष्प विशेष….
कैसा अद्भुत कैसा सुंदर कोमल…कमल”
हां! देखता हूं….
देखता हूँ … कमल की सृजक उस कीचड़ को
जिसने जन्मा है यह सुंदर प्रसून
अपनी कालिमा के गर्भ में…..
पोसा है जिसने श्वेत, धवल रंग इसका
सड़ांध से भरे वक्ष में छुपाकर कहीं..
जिसने सींची है सुगन्ध इसकी…
सुगंध जो दुर्लभ है किसी भी दैव पुष्प में,
अपशिष्ट, बहिष्कृत, अवांछनीयों से जिसने
गढ़ा है रूप कमल का..
हाँ देखता हूँ…
महात्म्य उस कर्दम दलदल का…
देखता हूं उस तिरस्कृत कलुषिनी को
जिसने नहीं मांगे
खाद-पानी-गुड़ाई-जुताई के संतुलित उपक्रम,
नहीं की याचना सौंधी-सुनहरी मिट्टी की…
जो मिला उसी से रच दिया यह दिव्य पद्म
पूछ सको तो
पूछो नगर, ग्राम, गिरि, कानन या उपवन की रज को
किस छाती में क्षमता है जो खिला सके पंकज को?
जिसके कालिख भरे हाथों में भी
सुरक्षित है यह चंद्रवर्णी उज्ज्वलता…
हां जिसने अपनी छाया भी
छूने नहीं दी नलिन को
देखता हूं उस कर्दम कीचड़ मलिन को….

कीचड़ में बस खिल भर आना, इसमें कमल का क्या है?
यह तप तो उस कीचड़ का है जिसने सृजन किया है…

– पुष्यमित्र उपाध्याय

 

 

 

नोट : इन विचारों के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी हैं।

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