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साल्ट का नाम आखिर किसके लिए ?

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साल्ट का नाम आखिर किसके लिए ?
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कुछ समाचार पत्र और इलेक्ट्रॉनिक न्यूज चैनल खुदरा रिटेल दवा बाजार में एक ही साल्ट की दवाइयों के दामों में भारी अंतर पर शोर मचा रहे हैं और इन सबमे उनको मैन्युफैक्चरर डिस्ट्रीब्यूटर थोक व्यापारी रिटेल स्टोर और डाक्टरों के बीच पनपता अनैतिक व्यसायिक कमीशन आधारित सम्बन्ध दिखता है /लेकिन कोई भी बुद्धिजीवी इस समस्या के मूल कारण पर प्रहार करने से डरता है / खुदरा रिटेल स्टोर पर बिक रहीं एक ही साल्ट की भिन्न भिन्न कीमतों पर बिक रही दवाईयों की बिक्री में डाक्टर उतना दोषी नही है जितना कि भ्रष्ट सरकारी सिस्टम जिम्मेदार है / बुद्दिजीवी पत्रकार यह प्रश्न उठा रहे हैं कि डाक्टरों को अपने पर्चे पर दवा के ब्रांड नाम की जगह दवा के साल्ट का नाम लिखना चाहिए / ठीक है बात सैद्धांतिक रूप से उचित एवं न्यायसंगत भी है लेकिन डाक्टर को साल्ट का नाम लिखना आखिर किस उद्देश्य पूर्ती में सहायक होगा ?यानि दवा के साल्ट का नाम मरीज के लिए है या फिर दवा बेचने वाले के लिए ?भारत में जहाँ तीस प्रतिशत निरक्षरता है वहां साल्ट के नाम लिखने से क्या हासिल होगा और मरीज क्या इस स्थिति में होता है कि पहले वह अपना रोग का इलाज ढूंढे या फिर साल्ट देखकर दवा का नाम निर्धारित करे ?अगर साल्ट का नाम लिखना ही एक नियम हो जाय तो सारा लाभ रिटेल स्टोर के हिस्से में हो जायेगा क्योंकि अब यह रिटेल मेडिकल स्टोर की अपनी इच्छा होगी कि उस साल्ट की महंगी से महंगी दवा मरीज को बेचे क्योंकि जितनी महंगी दवा उतना मुनाफा होगा ? निन्यानवे प्रतिशत मरीज इस स्थिति में नही होते कि साल्ट का नाम से दवा खरीद सकें और यदि यह साल्ट का नाम रिटेल स्टोर दवा विक्रेता के लिए अनिवार्य है तो बुद्धिजीवियों को यह जानना भी अनिवार्य है कि रिटेल दवा बेचने का लाइसेंस मेडिकल फार्मासिस्ट के नाम से बनता है और पूरे भारत में बड़े शहरों से लेकर गांवों कस्बों तक में खुले रिटेल मेडिकल स्टोरों पर सशरीर उपस्थित मेडिकल फार्मासिस्ट के दर्शन मंदिर में साक्षात हरि दर्शन समान ही हैं क्योंकि जैसे मंदिर में हरि विग्रह ही भगवान है ठीक उसी प्रकार रिटेल स्टोर के लाइसेंस पर मेडिकल फार्मासिस्ट का नाम अंकित होना ही रिटेल स्टोर पर फार्मासिस्ट को सशरीर उपस्थित होना मान लिया जाता है / निन्यानवे प्रतिशत रिटेल स्टोरों पर डाक्टर के लिखे पर्चे पर नजदीकी रिटेल मेडिकल स्टोर पर अलमारी से दवा निकालने से लेकर मरीज या तीमारदार को दवा बेचने वाला व्यक्ति मेडिकल फार्मासिस्ट न होकर बल्कि छठी सातवीं आठवीं पास व्यक्ति होता है,अब ऐसे रिटेलर को साल्ट के नाम से क्या लेना देना होगा और अगर डाक्टर साल्ट का नाम लिख भी दे तोभी रिटेलर डाक्टर से ही पूछकर दवा बेचेगा / भारत में कोई भी दवा मैनुफैक्चरिंग नही होती है बल्कि यहाँ तो रिपेकिंग होती है / निन्यानवे प्रतिशत धंधा चीन से आयातित कच्चे माल पर निर्भर है / बड़े बड़े दवा माफिया चीन से कच्चा माल यानि दवा के साल्ट आयात करते हैं और भारत की सारी दवा मैनुफैक्चरिंग यूनिटें इन्ही दवा माफियाओं से कच्चा मॉल खरीदती हैं और इस कच्चे माल को गोलियों कैप्सूलों सीरपों इंजेक्शनों में परिवर्तित नही बल्कि आकार देती हैं / येही दवा माफिया खुदरा बाजार में दवा के दाम निर्धारित करते हैं /जिस साल्ट की डिमांड ज्यादा होती है उसके दाम बढ़ जाते हैं / दवा बिक्री से पहले सारी मैनुफैक्चरिंग यूनिटों को भी दवा गुणवत्ता के लिए केंद्रीय ड्रग ऑथोरिटी से अनापत्ति लेनी होती है और चूंकि भारत में तो ईमानदारी सत्यता कर्तव्यनिष्ठा का परचम लहरा रहा है तो अनुमान लगाना सहज है कि कुछ मुद्रा के आदान प्रदान से सभी को अनापत्ति पत्र मिलना कोई बड़ी बात नही है / मेनुफैचरिंग यूनिट से लेकर मरीज तक दवा बिकने पर सबसे मोटा मुनाफा रिटेल स्टोर को होता है क्योंकि तेईस प्रतिशत मुनाफा तय किया हुआ है और सब दवाइयों पर दस प्रतिशत की न्यूनतम डील तय है तो यानि लगभग तेंतीस प्रतिशत मुनाफा रिटेल के हिस्से में है और रिटेल लाइसेंस जिला का सीएमओ और ड्रग इन्स्पेक्टर की संस्तुति उपरांत राज्य सरकार के स्वास्थय निदेशालय से जारी होता है /कहने को तो सरकारी फीस मात्र तीन हजार है लेकिन ईमानदारी के सिस्टम में मात्र चालीस पचास हजार रुपये का अनुदान रिटेल लाइसेंस के लिए पर्याप्त होता है और सबसे बड़ी बात कि रिटेल दवा स्टोर का लाइसेंस मेडिकल फार्मासिस्ट के नाम से जारी होता है और इसी मेडिकल फार्मासिस्ट को ही मरीज या तीमारदार को दवा बेचने का अधिकार प्राप्त है और यही फार्मासिस्ट डाक्टर के द्वारा लिखी दवाइयों को कैसे खाना है और कब खाना है ,निर्देश देना कानूनन अनिवार्य है लेकिन क्या किसी बुद्धुजीवी पत्रकार ने इस नियम के पालन की सच्चाई जाननी चाही है ?अगर डाक्टर कमीशन लेता भी है तो यह दवा कंपनी इस कमीशन को दवा के थोक मूल्य पर ही दे सकती है क्योंकि एमआरपी भले ही कुछ हो लेकिन कंपनी को पैसा तो डिस्ट्रीब्यूटर कीमत पर मिलता है /अतः सोचिये कि साल्ट का नाम लिखने से आखिर हासिल क्या होगा ?जबकि एक ही साल्ट की दवा कीमताें में ही भारी अंतर है जिसको रोकना ड्रग ऑथोरिटी की जिम्मेदारी है / मरीज दवा रिटेल काउंटर से खरीदता है जहाँ न मेडिकल फार्मासिस्ट है और नाहीं दवाइयों के रखरखाव का उचित प्रबंधन / टिटनस या अन्य वेक्सीन के इंजेक्शन भी कई दुकानों पर धुप में रखे मिल जायेंगे / कहीं कहीं मेडिकल स्टोर पर पशुओं की भी दवा बिकती मिल जाएँगी और कहीं कहीं तो मेडिकल स्टोर पर फ्रिज भी नही होता यानि जो दवाइयाँ फ्रिज में राखी जानी चाहियें वे खुले में गर्मी झेल रही होती हैं /सर्जिकल आइटम पर तो तीन सौ चार सौ प्रतिशत का मुनाफा है लेकिन यह मुनाफा डाक्टर या थोक विक्रेता या निर्माता के हिस्से में नही बल्कि रिटेल स्टोर मालिक को जाता है और वहां कौन सा नियम कानून का पालन हो रहा है इसकी जिम्मेदारी सबंधित ड्रग इन्स्पेक्टर और सीएमओ की बनती है लेकिन हर महीने हर दुकान से मिलने वाला इनाम सबके आँख नाक मुँह कलम बंद किये रहता है जिसका दंड बेचारा मरीज भुगतता है और महंगी दवाईयों के लिए गाली डाक्टर खाता है और सबसे अधिक मुनाफा रिटेल मेडिकल स्टोर मालिक कमाता है /
रचना रस्तोगी

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